आँखों के आगे एक शेहेर, उँची लंबी इमारतें, बारिश जो सुखी ना थी. बरसती तो ना थी पर नम सब कुछ था. बादल नम थे, हवाए नम थी, इमारतें नम थी, सड़कें नम थी और दो आँखों के जोड़े भी नम थे.
पहाड़ी पे खड़ा मैं इस बड़े शहर को हर पल छोटा होता देखता जाता था. चिड़ियाँ अब भी कहीं किसी पेड़ की आड़ में गर्मियों में मेहनत से बनाए घोंसलें मे छुपी थी. अपने प्यारे बच्चों को लपेटे अपने पंखों में. धीमी सी पड़ती सर्दी से बचा लेने की कोशिश में. कहीं किसी इमारत की खिड़की में ताकने की कोशिश करो तो कुछ ऐसा ही नज़ारा उस माँ का मिलेगा जो अपने बच्चे को अपनी बाहों मे लपेटे फिर एक रात की अच्छी नींद देने की कोशिश कर रही होगी.
खुली आँखों से कुछ ना दिखता और बंद आखों से सब दिखता था. खुली आँखें शायद मेरे जीवन का कठोर सच थी और वहीं बंद आँखें वो सपने जो पूरे ना हो पाए और वो पल जहाँ मैं वापिस लौट जाना चाहता हू अक्सर.

“क्या करेगा वापिस लौट के? बचपन में जा कर क्या सब बदल जाएगा? “
रिया के इस सवाल का कोई जवाब ना था मेरे पास.
“दूर, बहुत दूर चले जाना चाहता हू मैं इस सब से”
एक और पत्थर हवा में उड़ता जाता था. बाजुओं में अब दर्द होने लगा था. पर वो बचपना हाथों से दूर उछलते पत्थर सा जाता तो था, पर इतनी दूर भी नही की फिर लौट के ना पाए.
“क्यूँ ? क्यूँ दे रहा है खुद को इतना दर्द? “
इस बार शायद पत्थर किसी झाड़ी पे जा कर गिरा, कुछ चिड़ियाँ आसमान की ओर उड़ने लगी उसमे से निकलकर एक नन्ही से चिड़िया ज़्यादा उँची उड़ान नही भर पा रही थी. कोशिश बहुत करती. आसमान को छूने की पर सब बेकार. कहीं खुद का अक्स दिखाई दिया उसमें.

“वो चिड़िया दिख रही है? उड़ने की कोशिश कर रही है जो? नासमझ है मेरी तरह, आसमान के सामने एक छोटी सी जान. पर उड़ान भरने की कोशिश उससे भी कहीं बड़ी. “
रिया के माथे पे गहरी लकीरें बन आई थी. मेरे लिए परेशान जो थी वो.
“पर उसे मालूम है उसका आसमान कहाँ है. तुझे तो ये भी नही मालूम? “

ये बात कुछ चुभती सी दिल में आकर लगी. पलट के मैने देखा तो वो लकीरें अब भी वहीं उसके माथे पर थी. उतनी ही संगीन जितनी 5 मिनिट पहले थी. मुड़ कर मैं चलने लगा अपने स्कूटर की तरफ.

“चल आजा, इतना परेशान ना हो. नही तो वक़्त से पहले बूढ़ी हो जाएगी. बस दो दिन और फिर तू जा ही रही सात समुन्द्र पार कर के.”
रिया उठ के मेरे पीछे पीछे आने ही लगी थी के मैं पलट के पूछ बैठा.
“वो आखरी पहाड़ के पीछे ही है ना तेरा घर. ज़्यादा दूर नही है अमेरिका शायद, यहीं पहाड़ी पे हर सुबह मिलने आया करूँगा”
रिया को चिढ़ाने का अलग ही मज़ा था. मालूम है रोने लगेगी. 4 महीने के लिए ही तो जा रही थी.

“तू तो बाइक लेने वाला था ना, क्या हुआ उसका?”

धूप का नामों निशान ना था. अभी कुछ दीनों पहले तक ही बड़ा ताव में चला आता था जो सूरज, आज वो कहीं बादलों मे मूह छुपाए बैठा था. स्कूटर पे बैठा मैं धीरे धीरे पहाड़ी से नीचे उतरने लगा. हवायें इतनी ठंडी सर्दियों में भी ना होती थी इस शहर में.
“हाँ. एक दिन ज़रूर खरिदुन्गा. लंबी ड्राइव का अपना अलग मज़ा है. जब कभी मॅन भर आता है तो रोने को भी उसी कमरे में बैठे रहना पड़ता है. कहीं कुछ तो हो. तू वापिस आजा एक बार फिर लेता हू.”

रिया को उसके घर छोड़के उसे उसका स्कूटर पकड़ा मैं अपने घर के ओर चल दिया.
8:05 की लोकल.
अभी वक़्त था ट्रेन को आने को. अपनी घड़ी में देखते हुए प्लॅटफॉर्म पर ट्रेन के आने का इंतेज़ार करने लगा मैं.

“सच, सच बता. तूने हया को भुला दिया ? उसने तुझे माफ़ किया? “
रिया का ये सवाल बार बार दिमाग़ में घूमता था. क्या कहता रह रह कर अपने फोन की ओर देखता हू मैं. कल मिला था हया से आखरी बार. सोचा था माफी माँग लूँगा. क्या सही क्या ग़लत होगा ये तो नही मालूम था पर हाँ कुछ था जो कहीं अटका था. और फिर जब मिला तो उसकी आँखों में पहले तो देख भी ना पाया. ग़लतियाँ की है मैने. ना मैं समझदार हू, ना मैं हया की भाषा में कहूँ तो “मेच्यूर” हू. पर ये सब तो मैं हमेशा ही था. उसे नही मालूम था शायद. और मैं भी यही समझ बैठा की शायद हया के साथ बिताए पलों के सहारे खुद को सुधार पाउंगा. खैर जो हिम्मत हुई तो उसकी आँखों में देखा आखरी बार.
दो ठंडी, स्तब्ध आँखें दिखी मुझे. वो प्यार भरी नज़र , वो अपनेपन से झाँकने वाली निगाहें, वो सब ना जानें कहा गुम हो गया एकदम से. उसकी आँखें कुछ ऐसी थी की मेरे दर्द को चीरती चली गयी. कल तक जो बिछड़ने के गुम से कराहता था दिल एकदम से सुन्न पड़ गया.
“सच यही है की अब मैं ठीक हू. क्यूँ? क्यूंकी अब कुछ महसूस ही नही होता.”
मेरी ट्रेन आ गयी थी. भीड़ काफ़ी कम थी. चुपचाप चढ़ा और दरवाजे का कोना पकड़ के बाहर देखने लगा. खुद को यादों में लपेटने की कोशिश करता रहा. पर कुछ महसूस ही नही होता था. कोई लम्हा, कोई पल, कोई हँसी कोई खुशी, कोई गम , कुछ नही.
बस वो दो नफ़रत भारी आँखें.

“तो आ ही गया वो दिन जब तू भी जा रही है. सुन ! वापिस आ जाना जल्द ही अकेले बाइक चलाने का मॅन नही करेगा”
रिया की आँखें भर आई थी. अपने अंदर की सारी शक्ति इककट्ठी करके वो कैसे भी उन्हे बेहेने से रोक लेना चाहती थी.
“तू रोएगा नही. मैं जा रही हू ईडियट? “
कुछ महसूस होता तो रोता भी. क्या बोलता रिया को की कुछ महसूस होने की शक्ति ही ख़त्म हो गयी है.
“नही बाबा! आ तो रही है तू वापिस 4 महीनें में, रोना क्यू है फिर. यहीं मिलूँगा इसी एरपोर्ट पे. “ मुस्कुराते हुए रिया को कहने लगा.
उसे लगा मैं फिर उससे सता रहा था. और मैं उससे सताने की आड़ में कहीं अपना दर्द छुपा रहा था. कुछ महसूस ना होने का दर्द.
सेक्यूरिटी चेकप शुरू हुआ ही था बस. वो वक़्त आ ही गया था जब रिया को भी चले जाना था. हाथ से ट्रॉली को धकेल्ती वो जाने लगी. मैं खड़ा देखता रहा. पहली बार लगने लगा की कैस ईक मामूली सा दरवाजा लोगों को इतना दूर कर देता है. मेरे जैसे ही ना जाने कितने और अपने परिजनों को अलविदा कहने आए थे. ये तमाशा कितनी ही बार देखा था मैने. पर इस तरह कभी महसूस ना किया था.
सरहदों का मतलब, जो अक्सर नक्शों पे खींचें देखता था मैं, दूरियों का मतलब जो अक्सर मीलों मे नाप लेता था. आज समझ आने लगा था कैसे इक मामूली सा दरवाजे की ओर बढ़ती रिया अब कभी ना दिखेगी मुझे.
उसके साथ बिताए पल उसके साथ की लड़ाइयाँ, हया को पाने की खुशियाँ और खोने का ग़म सब ही तो बाँटा था इस प्यारी सी दोस्त के साथ.
बस दो कदम का फासला था कहने को तो रिया और मुझमें पर यही दो कदम कुछ पलों में सात समुंद्र की दूरियों में बदल जाएँगे.
और ये सब भावनाओं की आँधी बहुत ना थी जैसे जो रिया की एक आखरी आवाज़ मेरे कानों मे पड़ी.
“ओये! रोना है तो अभी रो ले. फिर मैं चली जौंगी. और अभी तो बाइक भी नही खरीदी तूने ?”
खुद को संभालते हुए रिया को देख मुस्कुराया , अलविदा कहते हुए हाथ हिलता रहा जब तक वो आँखों के सामने से गायब ना हो गयी.
फिर यूँ ही खड़ा और लोगों को उस दरवाजे से जाता देखता रहा जिसपे पर मोटे अक्षरों में लिखा था “प्रस्थान____डिपार्चर”.

एक हाथ कंधे पे आकर रुका मेरे.
“चलें दोस्त? सब लोग इंतेज़ार कर रहे हैं” व्योम ने मुझे मेरे ख्यालों से जागते हुए बोला.
“तू बाइक पे आया है ना? “मैने कहा.
“हाँ”
“तू उन लोगों के साथ कार में निकल जा. मुझे तेरी बाइक दे सकता है? “

हवाओं से बाते करता मैं घर की ओर लौट चला. और कोई था नही दर्द बाँटने को. बस ये रास्ता , ये हवायें और एक बाइक.

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