प्रिय मनोरमा ,
मास्टर चाचा से तुम्हारा ख़त मिला।बस पढ़ते पढ़ते उन प्रश्नों के उत्तर में उलझता गया जो तुमने पूछी है।प्रिय;कई दफा हम उस लौ की तपन को नहीं महसूस कर पाते हैं,जिसकी तपन में हमारा तन तप रहा होता हैं।मैं जनता हूँ,मैंने हाथ जला लिए है और इन जले हाथो ने जैसे तपती तन पे बर्फ दाल दिए हैं।तुम सही ही कहती हों कि मुर्दे देख जानवर भी इमोशनल हो जाते हैं। मैं बार बार जले हाथो को देखता हुआ उन सुलगे लौ पे तरस खाता हूँ,अपनी स्थिति पे गुस्सा भी आता है और फिर सोचता हूँ की उन लौ को इन्ही गुस्साओ ने तो सींचा था। खैर विवेक मिला था,उसने कहा है की वो डिस्प्ले चेंज कर देगा और फिर चमड़े भी तो नए आ ही जायेगे.
तुम्हारा । ।
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