भीड मे खडाा मै था एक अनजान चैहरा
दुसरो कि तरह कुछ गम मै भि था सह रहा
ऑखो मे थे हजार सपने और चाह कुछ करने कि..
फिर भि था मै भीड का हिससा


गरीबी कि आड मे मैने अपना बचपन खोय़ा
भुखा पय़ासा ही मै अकसर सोय़ा
मुझे लूटा इस समाज ने,
बेरोजगारी औऱ कूरीवाज ने


जहा जिमेदारियो का बोझ ढोना था
वहा बनदूके थाम ली
जुरम कि मैली चादर सर पर बॉध ली.
दो वकत की रोटी भी किसी के खून से नाम हुई


एक मासुम सी नाव है जिदगी
अब लहरो से जूझ रही है जिदगी
ना जाने कब डूब जाये जिदगी..

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