मुझे ये देख कर बहुत दुःख होता है कि आज भारत में भगत सिंह को केवल एक क्रांतिकारी या शहीद कह कर बात ख़त्म कर दी जाती है. पीढीयों से हमें सिर्फ यह पढाया जाता है कि भगत सिंह हिंसा के मार्ग से आजादी के पक्षधर थे उन्होंने सांडर्स की हत्या की और संसद में बम फेंका. जिसके फल स्वरुप उन्हें 23 मार्च 1931 को फांसी दे दी गयी.
भगत सिंह एक महान बुद्धिजीवी, विचारक, दार्शनिक, समाजवादी, क्रांतिकारी और मानवता के पक्षधर थे. उनके द्वारा संसद में फेंके गए बम के साथ फेंके गए पर्चो में लिखा था कि
“हम मनुष्य के जीवन को पवित्र समझते हैं। हम ऐसे उज्जवल भविष्य में विश्वास रखते हैं जिसमें प्रत्येक व्यक्ति को पूर्ण शान्ति और स्वतन्त्रता का अवसर मिल सके। हम इन्सान का खून बहाने की अपनी विवशता पर दुखी हैं। परन्तु क्रांति द्वारा सबको समान स्वतन्त्रता देने और मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण को समाप्त कर देने के लिए क्रांति में कुछ-न-कुछ रक्तपात अनिवार्य है।”
उनकी समाज से लेकर धर्म, राजनीति, दंगो, समाजवाद, पूंजीवाद, साम्राज्यवाद, न्याय, प्रेम, नैतिकता आदि आदि विषयो पर अपनी एक स्वतंत्र सोच थी. वो मानते थे कि सिर्फ अंग्रेजो के चले जाने से आजादी नहीं आयेगी.
“हमारे दल का अन्तिम लक्ष्य क्या है और उसके साधन क्या हैं – यह भी विचारणीय है। दल का नाम ‘सोशलिस्ट रिपब्लिकन पार्टी’ है और इसलिए इसका लक्ष्य एक सोशलिस्ट समाज की स्थापना है। कांग्रेस और इस दल के लक्ष्य में यही भेद है कि राजनैतिक क्रान्ति से शासन-शक्ति अंग्रेज़ों के हाथ से निकल हिन्दुस्तानियों के हाथों में आ जायेगी। हमारा लक्ष्य शासन-शक्ति को उन हाथों के सुपुर्द करना है, जिनका लक्ष्य समाजवाद हो। इसके लिये मज़दूरों और किसानों केा संगठित करना आवश्यक होगा, क्योंकि उन लोगों के लिये लार्ड रीडिंग या इरविन की जगह तेजबहादुर या पुरुषोत्तम दास ठाकुर दास के आ जाने से कोई भारी फ़र्क न पड़ सकेगा।”
-------2 फरवरी 1931 को लिखा गया “कौम के नाम सन्देश” का एक छोटा सा अंश
भगत सिंह के दिमाग के स्वत्रंत भारत का, पूर्ण स्वराज का अपना ही एक खाका था. भगत सिंह को जानने के लिए आपको उन्हें पढ़ना पड़ेगा और तब आपको पता चलेगा कि भगत सिंह उससे भी कितने ज्यादा महान थे जितना आप उन्हें आज तक समझते आयें हैं. आज आवश्यकता है उनके विचारो को स्कूल-कालेजो में पढाये जाने की, उन पर बहस की, सेमिनारो की, शोध की. ये हमारे देश का दुर्भाग्य है कि चर्चा देश के शहीदों और उनकी विचारधारा पर होने की बजाय आरोपियों, अपराधियों और देशद्रोहियों पर हो रही है.
शहीद भगत सिंह ने स्वयं अपनी मौत को चुना और माफी नहीं माँगी क्योंकि एक सोची-समझी रणनीति के तहत वो अपनी मौत से उपजे जनाक्रोश को अंग्रेजी हुकूमत के विरुद्ध प्रयोग करना चाहते थे. उन्होंने मात्र 23 वर्ष की आयु में अपना जीवन देश के ऊपर न्यौछावर कर दिया ताकि आने वाली पीढियां आजादी की हवा में सांस ले सकें.
उनकी सोच के स्तर को प्रदर्शित करने के लिए उनके जेल में लिखे गए लेख “मैं नास्तिक क्यों हूँ” का एक बहुत छोटा सा अंश उद्घृत कर रहा हूँ:
“मैं स्वयं के लिये यह बात तय करना चाहता था कि क्या शान्ति और आनन्द के दिनों में ही मैं नास्तिक होने का दम्भ भरता हूँ या ऐसे कठिन समय में भी मैं उन सिद्धान्तों पर अडिग रह सकता हूँ। बहुत सोचने के बाद मैंने निश्चय किया कि किसी भी तरह ईश्वर पर विश्वास तथा प्रार्थना मैं नहीं कर सकता। नहीं, मैंने एक क्षण के लिये भी नहीं की। यही असली परीक्षण था और मैं सफल रहा। अब मैं एक पक्का अविश्वासी था और तब से लगातार हूँ। इस परीक्षण पर खरा उतरना आसान काम न था। ‘विश्वास’ कष्टों को हलका कर देता है। यहाँ तक कि उन्हें सुखकर बना सकता है। ईश्वर में मनुष्य को अत्यधिक सान्त्वना देने वाला एक आधार मिल सकता है। उसके बिना मनुष्य को अपने ऊपर निर्भर करना पड़ता है। तूफ़ान और झंझावात के बीच अपने पाँवों पर खड़ा रहना कोई बच्चों का खेल नहीं है। परीक्षा की इन घड़ियों में अहंकार यदि है, तो भाप बन कर उड़ जाता है और मनुष्य अपने विश्वास को ठुकराने का साहस नहीं कर पाता। यदि ऐसा करता है, तो इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि उसके पास सिर्फ़ अहंकार नहीं वरन् कोई अन्य शक्ति है। आज बिलकुल वैसी ही स्थिति है। निर्णय का पूरा-पूरा पता है। एक सप्ताह के अन्दर ही यह घोषित हो जायेगा कि मैं अपना जीवन एक ध्येय पर न्योछावर करने जा रहा हूँ। इस विचार के अतिरिक्त और क्या सान्त्वना हो सकती है? ईश्वर में विश्वास रखने वाला हिन्दू पुनर्जन्म पर राजा होने की आशा कर सकता है। एक मुसलमान या ईसाई स्वर्ग में व्याप्त समृद्धि के आनन्द की तथा अपने कष्टों और बलिदान के लिये पुरस्कार की कल्पना कर सकता है। किन्तु मैं क्या आशा करूँ? मैं जानता हूँ कि जिस क्षण रस्सी का फ़न्दा मेरी गर्दन पर लगेगा और मेरे पैरों के नीचे से तख़्ता हटेगा, वह पूर्ण विराम होगा – वह अन्तिम क्षण होगा। मैं या मेरी आत्मा सब वहीं समाप्त हो जायेगी। आगे कुछ न रहेगा। एक छोटी सी जूझती हुई ज़िन्दगी, जिसकी कोई ऐसी गौरवशाली परिणति नहीं है, अपने में स्वयं एक पुरस्कार होगी – यदि मुझमें इस दृष्टि से देखने का साहस हो। बिना किसी स्वार्थ के यहाँ या यहाँ के बाद पुरस्कार की इच्छा के बिना, मैंने अनासक्त भाव से अपने जीवन को स्वतन्त्रता के ध्येय पर समर्पित कर दिया है, क्योंकि मैं और कुछ कर ही नहीं सकता था। जिस दिन हमें इस मनोवृत्ति के बहुत-से पुरुष और महिलाएँ मिल जायेंगे, जो अपने जीवन को मनुष्य की सेवा और पीड़ित मानवता के उद्धार के अतिरिक्त कहीं समर्पित कर ही नहीं सकते, उसी दिन मुक्ति के युग का शुभारम्भ होगा। वे शोषकों, उत्पीड़कों और अत्याचारियों को चुनौती देने के लिये उत्प्रेरित होंगे। इस लिये नहीं कि उन्हें राजा बनना है या कोई अन्य पुरस्कार प्राप्त करना है यहाँ या अगले जन्म में या मृत्योपरान्त स्वर्ग में।”
क्या हमसे से किसी में इस तरह सोचने का भी साहस है? मुझमे तो नहीं. फिलहाल अभी तो नहीं.