एक आम शहरी ग्रेजुएट की तरह मुझे भी नौकरी के लिए दूसरे शहर जाना पड़ा। घर, मोहल्ला, यार दोस्त सब के सब पीछे छूट गए, बहुत पीछे। इतने की शायद गिने चुनो के ही चेहरे अब याद हैं। साल छह महीने में जब घर जाना होता है, तो हर बार चेहरे बदले हुए से नज़र आते हैं, कुछ ज्यादा बूढ़े होते हुए तो कुछ जल्दी बड़े होते हुए तो कुछ नए भी। जो कल तक गोद में थे आज वो हाथ में भी मुश्किल से आते हैं। घर के सामने वाली सड़क पर खड्डे बड़े होते जाते हैं, और चलने की जगह छोटी।
इस बार गया, एक सुबह माँ ने घर का कुछ सामान लाने को मुझे बाज़ार भेज दिया। दूकान पर एक जाना पहचाना सा चेहरा दिखा, कहीं तो देखा था। पर जल्द ही याद आया की सामने खड़े जनाब तो हमारे स्कूल के मित्र है। पुराने मित्र और बक्से में पड़ी पुरानी चीज़ें जब दिख जाए तो भावनाओं का ज्वार उमड़ आता है। शुरूआती बड़प्पन की झिझक के बाद हम जल्द ही खुल गए। BCom के बाद मित्र आजकल अपने ही पिताजी का cinema hall संभालते थे। जमा जमाया बिज़नस था तो करियर चुनने का कोई विकल्प ना था बस लग गए धंदे पर।
उसने ऑफिस तक चलने को कहा तो हम चल दिए। पहुंचे तो देखा "A" फिल्म लगी हुई है पोस्टर देख हमारे कदम तो वही रुक गए। पर मित्र को कहीं बुरा ना लग जाए इसलिए सहजता में लिपटी असहजता के साथ हम तेज़ कदमो से उसके केबिन में जा घुसे। कोई देख लेता तो ना जाने क्या सोचता, "अच्छा तो ये शौक भी रखते है जनाब"। आते ही हमने सवाल दाग दिया "अरे भाई ये किस तरह की फ़िल्में लगा रखी है ?" मित्र ने मेरी असहजता को भांप धीरे से मुस्कुरा कर कहा की "देखो मित्र मैं एक व्यापारी हूँ और मेरा ध्येय पैसे कमाना है। हमारा सिनेमा हॉल बहुत पुराना है, पहले हमारे यहाँ भी सामान्य "U" श्रेणी की फ़िल्में ही लगा करती थी पर Hit, Flop के चक्कर में कई बार नुक्सान उठाना पड़ता था। फिर भी किसी तरह काम चला लिया करते थे। Internet और Multiplex का दौर शुरू होने के बाद तो वह भी मुश्किल हो गया। घरेलु फ़िल्में या तो download कर ली जाती है या किसी Mall में बने मल्टीप्लेक्स में देखी जाती है। Single screen में तो कबूतर ही अपना घोसला बनाने आने लगे। बात "A" फिल्मों की करें तो भैया ये कभी फ्लॉप नहीं होती, थोडा बहुत मुनाफा तो दे ही जाती है। और वैसे भी हम किसी दबाव तो नहीं डाल रहे, लोग खुद ब खुद आते है और देख कर निकल लेते है। बोलो हम क्या गुनाह कर रहे है ?" बात में तो दम है बन्दे की …
कुछ यही हाल राजनीति का है। हम राजनैतिक दलों को दोष देते हैं की वे अपराधियों को चुनावी टिकट देकर राजनीति का अपराधीकरण करते हैं। पर भैया सोचने वाली बात तो यह ही की उन अपराधियों को चुनाव जिताने वाले तो हम ही हैं। हम जीता रहे है तो पार्टियां तो जीतने वाले घोड़ों पर ही दांव लगाएंगी। अपने निजी स्वार्थ पूरे करने के लिए हम उनको सत्ता में बिठाते है और दोष राजनैतिक दलों के माथे मढ़ देते है।
कुल मिलाकर बात यह है भैया इस बाज़ार में जो चलता है वही बिकता है।