लीलाबारी समुन्द्रतल से 100 मीटर की ऊंचाई पर है और जीरो 1500 मीटर पर. लीलाबारी से जीरो तक लगभग पूरे रास्ते में चढ़ाई थी लेकिन अब हमें डेपोरिजो जाना था जिसका स्तर समुन्द्र तल से 600 मीटर है, इसलिए हमें 900 मीटर ढलान में जाना था. लीलाबारी से जीरो के बीच में हमें फिर भी थोड़ी बहुत देर में कोई ना कोई दूसरी गाडी दिखाई दे जाती थे लेकिन जीरो से डेपोरिजो का रास्ता तो बिल्कुल सुनसान था. घंटो में जा कर कोई गाडी दिखाई देती थी. सड़क की हालत बहुत ख़राब थी. सफ़र में घनघोर जंगल का आभास हो रहा था. बीच में कोई कोई छोटा मोटा गाँव या बस्ती मिल जाती थी लेकिन कोई भी ऐसी जगह नहीं मिली जहाँ हमें खाना मिल जाता. कल तो घर के लाये परांठो से काम चल गया था, लेकिन आज हमें कही भी कुछ नहीं मिल पा रहा था. खाना तो दूर की बात है कही पर मोबाइल नेटवर्क भी नहीं था. तीन घंटे चलने के बाद एक गाँव आया जिसका नाम था तमेन. यहाँ पर बीएसएनएल का नेटवर्क आने लगा था. कुछ छोटी-मोटी दुकाने थी लेकिन वो सब रोजमर्रा के सामन की थी. खाने की कोई दूकान नहीं थी. तमेन के बीचो-बीच से एक नदी बह रही थी. पता लगा नदी का नाम था कमला. कमला नदी पर बहुत पुराना लोहे का हैंगिंग ब्रिज था जिसकी सड़क लकड़ी की थी.
हमने बहुत धीमे-धीमे डरते-डरते इस पुल को पार किया. पुल पार करने के बाद बोर्ड लगा था कमला हाइड्रोइलेक्ट्रिक प्रोजेक्ट 3.5 किलोमीटर. लेकिन ये प्रोजेक्ट बायीं ओर था और डेपोरिजो का रास्ता दायीं ओर. नदी बहुत गहरी थी और इसमें कुछ रेत के टापू भी थे, जिसमे कुछ लोग नहा रहे थे. दृश्य बड़ा ही मनोहारी था हम गाडी से नीचे उतरे और कुछ फोटो वगैरहा खींचे. यही पर साइड में एक चाय की दुकान थी. हमें चाय का आर्डर दिया. दुकान के बाहर एक वृद्ध पुरुष और एक वृद्ध स्त्री बैठे हुए थे. पुरुष एक दम शांत था लेकिन वृद्धा बहुत बोल रही थी और हमसे कुछ कह रही थी. हमें कुछ भी समझ नहीं आ रहा था. हमने तुबिन से पूछा कि वो क्या कह रही है, तो उसने बताया कि पूरी तरह तो उसे भी समझ में नहीं आ रहा है क्योंकि उसकी भाषा अलग है लेकिन वो ये बता रही है कि उसका बेटा बहुत बड़ा नेता है. साथ उसने बताया कि उस वृद्ध स्त्री ने बहुत शराब पी हुयी है और उससे बात करना उचित नहीं होगा. हमने जल्दी जल्दी चाय ख़त्म की और आगे चल पड़े.
चले हुए चार घंटे हो चुके थे और खाने को कुछ नहीं मिला था. तभी अचानक भगवान ने हमारी सुन ली. एक छोटी सी बस्ती थी. मुश्किल से 8-10 घर होंगे लेकिन एक पर लिया हुआ था सौभाग्य रेस्तौरेंट. पूरे नार्थ ईस्ट में रेस्तौरेंट्स में और कुछ मिले ना मिले लेकिन चावल जरूर मिल जाते है. निरामिष लोग दाल से खा लेते हैं और सामिष लोग मछली या चिकन से. हमने पता किया कि खाने में क्या है. चावल मिल गए. हमने दाल चावल खाए और संतुष्ट हो कर फिर से चल पड़े अपनी यात्रा पर.
जैसा की आपको पता है पहाड़ो में सड़क के एक और पहाड़ होता है और दूसरी ओर घाटी. यहाँ पर एक खास बात हमने देखी कि घाटी वाली तरफ कही बांस की बाड़ लगी है, कही झोपडी और कही और कोई ढांचा. पूछने पर पता लगा की पूरे अरुणाचल में ट्रांस अरुणाचल हाईवे बनने वाला है इस लिए लोगो में जमीन का मुआवजा लेने के लिए सड़क के साथ-साथ कुछ ना कुछ ढांचे बना दिए हैं ताकि वो मुआवजे का दावा कर सके. इस पर हमारा सवाल था कि ऐसा कैसे हो सकता है ये जमीन तो वन विभाग की या अन्य किसी सरकारी विभाग की होगी तो पता चला कि अरुणाचल प्रदेश में भूमि का कोई दस्तावेज सरकार के पास नहीं है और जो जहाँ रहता है वो जमीन उस की है. जिसका जहाँ मन करता है वो वहां बस जाता है या खेती करता है और वो जमीन उस की हो जाती है. अब अगर सरकार को उस जमीन पर कुछ करना है तो उस आदमी की मर्जी से और सिर्फ मुआवजा दे कर ही वो काम हो सकता है.
हमने बीच-बीच में पहाड़ो के ऊपर काफी बड़े क्षेत्र में जले हुए वन देखे. ये झूम कल्टीवेशन था. आप अगर विकिपीडिया पर देखेंगे तो इसे ही स्लैश एंड बर्न खेती भी कहते हैं. इसमे जंगल के किसी भी हिस्से को आग लगा कर साफ़ कर लिया जाता है और फिर उस पर चावल या फल या सब्जी की खेती की जाती है. ये लोग वही पर अपनी झोपडी बना कर एक-दो साल के लिए बस जाते हैं. इस विधि से केवल दो या तीन फसल ही हो पाती है उसके बाद भूमि अपनी उर्वरा क्षमता खो देती है और किसान जंगल के किसी और हिस्से को आग लगा कर अपना खेत बना लेता है और फिर नई जगह बस जाता है. पर्यावरण के लिए ये एक बहुत बड़ा खतरा है क्योंकि इससे वन समाप्त हो जाते हैं और पर्वतीय भूमि में कटाव होने लगता है. उत्तर-पूर्व के कई राज्यों के साथ-साथ विश्व के कई भागो में ऐसा होता है. मिजोरम में इसे बन्द करने के लिए सरकार ने इस पर पाबंदी भी लगाई है. पर्यावरण के लिए चिंतित होने के साथ साथ उन लोगो के लिए भी मन में बड़ी करुणा पैदा हुयी जिनका कोई स्थायी घर नहीं है और वो बंजारों की तरह जंगल-जंगल सिर्फ भोजन पैदा करने के लिए भटकते रहते हैं.
जब हम डेपोरिजो में होटल सांघिक पहिंचे तो करीब-करीब रात हो चुकी थी. घड़ी देखी तो साढ़े पांच बज चुके थे. होटल के काउंटर पर कुछ स्थानीय लड़के काउंटर पर खड़े आदमी को धमका रहे थे. वो उसे एक कलेंडर देकर बदले में कुछ पैसा चाहते थे. होटल वाला उन्हें समझाने की कोशिश कर रहा था कि वो बिना मालिक की आज्ञा से उन्हें एक भी पैसा नहीं दे सकता. “इतना बड़ा होटल बना कर रखा है एक केलेंडर भी नहीं ले सकते? मालिक आयेगा तो मेरा नाम बात देना”. वो लोग बडबडाते हुए चले गए. तुबिन ने बताया कि ये यहाँ का रूटीन धंधा है. हमने होटल में चेक-इन किया और अपने अपने कमरों में थोडा विश्राम करने के लिए चले गए. आधे घंटे बाद फिर से हम रिसेप्शन पर मिले तो होटल वाले ने बताया कि जिला उपायुक्त के कार्यालय से कोई व्यक्ति केवल ये पता करने के लिए आया था कि हम लोग पहुंचे हैं या नहीं. हमने बाजार घूमने का कार्यक्रम बनाया. होटल से थोड़ा आगे जा कर कुछ 10-12 साल के कुछ बच्चे खेल रहे थे. हमने उन से मुख्य बाजार का रास्ता पूछा. उन्होंने बता दिया लेकिन साथ ही उन्होंने दस रूपये दो, दस रूपये दो हमने आपको रास्ता बताया है, की मांग की. हमने नहीं दिए और आगे चल दिए.
डेपोरिजो में ठण्ड ज्यादा नहीं थी. मौसम सुहावना था. बाजार एक छोटे कस्बे के बाजार जैसा सामान्य सा था और लगभग सभी तरह की दुकाने उपलब्ध थी. घूमते घूमते हम एक चाय की दुकान पर रुक गए. चाय वाला स्थानीय नहीं लग रहा था. पूछने पर उसने बताया कि वो बिहार से है और पिछले बीस सालो से डेपोरिजो में रहता है. हमें आश्चर्य हुआ. हमने पूछा कि जब अरुणाचल में दो-चार दिन के लिए आने के लिए भी इनर लाइन परमिट की जरूरत होती है तो आप यहाँ कैसे बस गए. चाय वाले ने बताया की उसका भी एक परमिट है जो कि मात्र एक वर्ष के लिए मान्य होता है और प्रतिवर्ष उसका नवीनीकरण कराना होता है. हमने पूछा कि आपको स्थानीय लोग परेशान तो नहीं करते तो उसने कहा नहीं कोई ख़ास नहीं बस कभी-कभी लड़का लोग आता है थोडा बहुत चाय पानी का कुछ देना पड़ता है. उसके व्यव्हार से लग रहा था कि ये बात बताते हुए वो कुछ भयभीत था और खुल कर नहीं बोल पा रहा था. हम घूम फिर कर होटल वापस आ गए और खा-पी कर सो गए.
सुबह नहा-धोकर तैयार हो हुये. नाश्ते में पूरी भाजी थी. दस बजे तक जिला उपायुक्त के कार्यालय पहुंचे. उन्होंने बड़ी गर्म जोशी से हमारा स्वागत किया. उन्होंने प्रस्ताव रखा कि पहले पुरानी हवाई पट्टी और हवाईअड्डे के लिए प्रस्तावित नवीन स्थल का दौरा कर लिया जाये और बाद में बैठक करेंगे. सभी ने प्रस्ताव का समर्थन किया.
सबसे पहले हम जिस जगह पहुंचे वो तथाकथित हवाई पट्टी थी. कस्बे के बीचो-बीच एक बेतरतीब सा फैला हुया मैदान था. जिसमे एक ओर कुछ लोग फुटपाथ की तरह कपडे बेच रहे थे, सब तरफ कूड़े के ढेर थे, बहुत सारे बच्चे क्रिकेट वगैरहा खेल रहे थे. बीच में एक सेना के खाकी रंग का एक ढांचा जैसा था. हम सब लोग उसी तरफ जा रहे थे. उपायुक्त महोदय ने बताया कि डेपोरिजो एअरपोर्ट सेना के द्वारा संचालित किया जाता है. मैं ये सोच सोच के परेशान था कि एअरपोर्ट है कहाँ? उस एक कमरे के मकान के पास पहुँच कर देखा कि कच्ची जमीन पर कास्ट आयरन की शीट बिछी हुयी है जिसके गोल-गोल छेदों में से घास उगी हुयी है. शीट के सभी टुकड़े एक ही आकार के थे और किनारों पर बने हुए नुकीले दांतों से एक शीट दूसरी शीट से जुडी हुयी थी. ये शीट उत्तर-पूर्व के हर एअरपोर्ट में देखी जा सकती है. इसे पीएसपी शीट कहते हैं और ये अंग्रेजो के समय में पानी के जहाज से लन्दन से आयी थी. लोग बताते है कि स्वतंत्रता पूर्व के समय में जहाँ हवाई पट्टी नहीं होती थी वहां इस शीट को बिछा कर टेम्पोरेरी रनवे बना दिया जाता था और छोटे हवाई जहाज इस पर उतरते थे. आज मैं इस तथ्य का साक्षात दर्शन कर रहा था. हमने उपायुक्त महोदय को बताया कि नवीनतम नियमो के अनुसार ये स्थान हवाईअड्डे के लिए छोटा है और आस-पास की भूमि का अधिग्रहण करना होगा. उन्होंने बताया कि आस-पास का पूरा इलाका बसा हुया है और किसी भी कीमत पर इसका अधिग्रहण करना संभव नहीं है.
उपायुक्त महोदय ने दूसरे स्थान के दौरे से पहले हमें एक और जगह दिखाई जहाँ पूरी खेती की जमीन थी. छोटे से विचार विमर्श से ही ये भी स्पष्ट हो गया कि ये स्थान भी उपयुक्त नहीं है और इसका अधिग्रहण भी सम्भव नहीं होगा.
तीसरी साईट के लिए हमें डेपोरिजो से बाहर जाना था. चारो गाड़ियाँ उस ओर चल पडी. यूं तो डेपोरिजो की सारी सड़के ही खस्ताहाल थी और गढ्ढे, पानी और कीचड से भरी हुयी थी लेकिन थोड़ी देर बाद सबसे आगे वाली गाडी ने इस सड़क को भी छोड़ दिया और एक दम कच्ची सड़क पर आ गयी. ना सिर्फ सड़क कच्ची थी बल्कि इसमें बड़े बड़े पत्थर थे, कीचड था, और चढ़ाई थी.
आगे वाली गाडी स्कार्पियो थी, जो कि मजे में दौड़ी जा रही थी लेकिन हमारी गाडी इन्नोवा थी और हमें लग रहा था कि हमारी गाडी अब फंसी और तब फंसी. किसी तरह आधे घंटे की कठिन चढ़ाई के बाद राम-राम करते एक गाँव में पहुंचे. गाँव का नाम था जेराम बस्ती. मोबाइल में ऊँचाई देखी, औसत समुन्द्र तल से ऊँचाई थी 850 मीटर. यहाँ संतरों के बगीचे थे और संतरों को तोड़ने और इकट्ठा करने का काम चल रहा था. उपायुक्त महोदय ने हमें यहाँ से संतरे खरीद कर खिलाये. इतने ताजे, रसीले और मीठे संतरे मैंने जीवन में पहले नहीं खाए थे. यहाँ से आगे पैदल पहाड़ पर चढ़ाई करनी थी. हमारे साथ में पथ-प्रदर्शक के रूप में कुच्छ स्थानीय लड़के भी थे जिन्होंने पानी की बोतल, बिस्कुट और जूस के पैकेट्स साथ में लिए हुए थे.
हम चले जा रहे थे चले जा रहे थे लेकिन सफर था कि ख़त्म होने का नाम ही नही ले रहा था. यूं तो मैंने कुल्लू पोस्टिंग के दौरान बहुत ट्रेकिंग की है लेकिन तब उम्र 35 साल थी और अब 45. सांस बुरी तरह फूली हुयी थी, पैर जवाब देने लगे थे और हर कदम पर पैर काँप रहे थे. मुझे धीरे-धीरे गुस्सा आ रहा था, इन्होने पहले क्यों नहीं बताया कितना लम्बा और कैसा रास्ता है, हमारी गाडी फंस जाती तो, पहले क्यों नहीं बताया कि कितना ऊपर चढ़ना है...... अंत में मेरे सब्र की इन्तेहा हो गयी और मैंने ऐलान कर दिया कि जिसे जाना हो वो जाए मैं और उपर नहीं जाऊँगा. उपायुक्त महोदय ने बड़े प्रेम से कहा कि कोई बात नहीं आप यही रुकिए हम लोग ऊपर जा कर आते हैं. तीन-चार लोगो को छोड़ कर बाकी लोग आगे चल दिए. थोड़ी देर में जब मेरा गुस्सा शांत हुया तब मुझे लगा कि अब इतना दूर आ गए है तो थोडा सा और सही. मैंने एक और स्थानीय व्यक्ति को साथ में लिया और फिर से यात्रा शुरू की.
दस-पंद्रह मिनट में ही हम पहाड़ की चोटी पर पहुँच चुके थे. प्रस्ताव पहाड़ को काट कर मैदान बना कर उसमे एअरपोर्ट बनाने का था. हमने ऊँचाई नोट की जो थी 1030 मीटर थी अर्थात हम 180 मीटर पैदल चढ़ाई कर चुके थे, यानि की लगभग 60 मंजिल की इमारत. खैर हमें जो कुछ भी नोट करना था वो किया, कुछ फोटो लिए, बिस्कुट खाए, पानी और जूस पिया. हमारे लिए आश्चर्य की बात ये थी कि जो स्थानीय लडके हमारे साथ थे वो इस लिए थे कि इस पहाड़ पर उनका दावा था कि वो और उनके खानदान वाले यहाँ झूम खेती करते हैं इस लिए ये पहाड़ उनका है. अगर यहाँ एअरपोर्ट बनेगा तो उन्हें मुआवजा चाहिए. हमारे लिए ये कल्पना से भी परे की बात थी कि एक पूरा पहाड़ भी किसी की व्यक्तिगत संपत्ति हो सकता है. और हाँ हम हिन्दुस्तान के ही एक हिस्से में थे.
लौट कर उपायुक्त महोदय ने हमें सर्किट हाउस में खाना खिलाया फिर उनके कार्यालय में बैठक हुयी. सभी पहलुओ पर विस्तार से चर्चा हुयी. साथ ही ये भी निर्णय लिया गया कि कल हमारे डेपोरिजो छोड़ने से पहले सुबह सात बजे एक और साईट का निरीक्षण किया जाए.
डेपोरिजो, अरुणाचल प्रदेश के अपर सुबसिरी जिले का मुख्यालय है और जीरो लोअर सुबनसिरी जिले का. सुबनसिरी नदी का जीरो से कोई लेना देना नहीं है लेकिन वो डेपोरिजो कस्बे के एक किनारे को छूती हुयी बहती है. प्रस्तावित साईट नदी के दूसरी ओर थी. हमारे थोडा लेट होने पर उपायुक्त महोदय और अन्य अधिकारी गण हमारे होटल ही आ गए. गाडी से नदी पार करने वाला पुल बहुत दूर था तो हमने नदी के इस तरफ ही गाड़ियाँ छोड़ दी और एक छोटे झूला पुल से नदी पार की. नदी और पुल का दृश्य बहुत बहुत खूबसूरत था. नदी बहुत गहरी और एक दम शांत थी. पानी हरे रंग का था. सूर्योदय हुया होगा लेकिन वो बादलो में छुपा हुया था और नदी के ऊपर दूर तक कोहरा छाया हुआ था. ये सब कुछ किसी कविता जैसा था. ये ही वो नदी थी जो बह कर लीलाबारी के पास लखीमपुर जिले में जाती थी. मैं सोच रहा था कि हमें यहाँ तक आने में दो दिन लगे इस पानी को वहां तक जाने के कितने दिन लगते होंगे. नदी पार करके हम दूसरी तरफ आ गए और नदी के साथ साथ चलने लगे.
चलते चलते जब भी कोई गाडी या व्यक्ति पास से गुजरता था तो उपायुक्त महोदय मेरे कंधे पर हाथ रख कर मुझे थोडा अपनी ओर कर लेते थे. उन्होंने ही बताया कि यहाँ पर कानून और व्यवस्था की स्थिति काफी लचर है. कोई भी व्यक्ति या गाडी अगर किसी को छू भी गयी तो काफी बड़ा झगडा हो सकता है और उसे संभालना मुश्किल होगा. उन्होंने मजाक में ये भी कहाँ कि यहाँ डेमोक्रेसी नहीं डेमोक्रेजी है. थोड़ी दूर जा कर घाटी चौड़ी हो गयी थी और हम नदी के किनारे और नीचे की तरफ पत्थरों में उतर गए थे ताकि ठीक से अनुमान लगा सके कि एअरपोर्ट बनाने के लिए कितनी जगह मिल सकती है. हमने लगभग तीन किलोमीटर तक के क्षेत्र का डेढ़-दो घंटे तक दौरा किया. आवश्यक डाटा नोट किया, फोटो लिए और लौटने लगे.
होटल वापस आकर नहा कर तैयार हुए, नाश्ता किया, रास्ते के लिए खाना बंधवाया, होटल का बिल अदा किया. तभी हमें बाहर कुछ शोर जैसा सुनाई दिया. झांक कर देखा तो काफी सारे स्त्री, पुरुष, युवा और बच्चे इकट्ठा थे. वो जोर जोर से कुछ कह रहे थे. तीन चार गाड़ियाँ भी थी. हमने तुबिन से पूछा क्या हो रहा है तो वो बोला कि ठीक ठीक तो उसे भी समझ में नहीं आ रहा है लेकिन ऐसा दो ही सूरतो में होता है एक तो किसी उत्सव में या फिर कोई झगडा होने पर. कुछ समझ नहीं आ रहा था लेकिन एक असहजता और असुरक्षा का सा अहसास हो रहा था. हम लोग होटल में ही रुके रहे और इसके ख़त्म होने का इन्तजार करने लगे. थोड़ी देर बाद ये पूरा काफिला शोर मचाता हुया चला गया. हमारी इच्छा थी कि हम जिस रास्ते से आये हैं उससे वापस ना जा कर दूसरे रास्ते से अर्थात अलोंग और लीकाबाली हुते हुए वापस चले, लेकिन सभी परस्थितियो को देखते हए हमने उसी रास्ते से लौटने का निर्णय लिया जिस से हम डेपोरिजो गए थे अर्थात जीरो में रात्रि विश्राम करके. डेपोरिजो से बाहर निकल कर जब हम मुख्य सड़क पर आये तो होटल के बाहर वाला पूरा काफिला आराम से उसी दिशा में जा रहा था, हंसते, गाते, शोर मचाते हुए. दो-तीन पिकअप वाले टेम्पो थे. दो-तीन कारे और आठ-दस बाइक्