गौहाटी से आने वाले दोनों लोग ट्रेन से आने वाले थे और ट्रेन रात को 0240 पर आती थी. मैंने अपने ड्राईवर को शाम को ही छुट्टी दे दी थी और उसे साफ़ साफ़ कह दिया था कि अलार्म लगा कर सोना. क्योंकि मुझे रात को बीहू की पार्टी में एसपी साहब के घर जाना था इसलिए शाम को ही गाडी की चाबी ड्राईवर को देना सम्भव नहीं था. रात को पार्टी से लौटने के बाद चाबी मुख्य द्वार पर तैनात सुरक्षाकर्मी को दे दी थी और उसे ये भी कहा था कि अगर 0230 तक भी ड्राईवर चाबी लेने ना आये तो मुझे जगा देना.
जिसका डर था वो ही हुआ. रात ढाई बजे जब किसी ने डोर बेल बजाई तो मुझे समझ में आ गया की वाहन चालक महोदय ने निद्रा देवी के मोह में अपने कर्तव्यों के निर्वाह को प्राथमिकता देना उचित नहीं समझा. मैं फटाफट उन्ही कपड़ो में अपना मोबाइल उठा कर स्कॉर्पियो लेकर स्टेशन भागा. जब मेरी गाडी एअरपोर्ट के गेट से निकल रही थी तो ट्रेन की आवाज साफ़-साफ़ सुनायी दे रही थी. मैंने रास्ते में ही चालक महोदय की सेवाए समाप्त करने का निर्णय अंतिम रूप से ले लिया था. ये महानुभाव पहले भी कई बार अपने कर्तव्यों के निर्वाह में कोताही बरत चुके थे. बिना पूर्व सूचना अनुपस्थित होना, और कार्य के समय में ही मदिरापान करना इनकी आदत में था. खैर जब मैं रेलवे स्टेशन की पार्किंग में पहुंचा तो सभी यात्री स्टेशन से बाहर आ चुके थे और अपनी-अपनी गाडी या ऑटो ढूंढ रहे थे. किसी ने मेरी गाडी का दरवाजा खोला और पूछा रणजीत सिंह? मैं हाँ कर दी. दरअसल रणजीत सिंह चालक महोदय का नाम था और मैं आगंतुको को पहले ही फोन पर गाडी का नम्बर और चालक का नाम बता चुका था. दोनों लोग सामान रख कर अन्दर बैठ गए. गाडी वापस एअरपोर्ट की तरफ दौड़ने लगी.
दोनों लोगो से परिचय हुआ और उन्हें पता लगा कि मैं ही वो अभागा विमानपत्तन निदेशक हूँ जिसे खुद रात को ढाई बजे गाडी लेकर भागना पड़ता है. इन लोगो को टर्मिनल भवन के प्रथम तल पर बने दो अतिथिकक्षों में पहुँचाने के बाद इन्हें गीजर, हीटर, पानी, बिजली की केतली, चाय की सामग्री, बिस्कुट, तौलिये, साबुन, तेल आदि की जानकारी देकर मैं रात सवा तीन बजे तक घर लौट आया. आकर देखा श्रीमती जी बड़ी ही चिंतित मुद्रा में घूम रही है. उन्हें समझा कर फिर से सोने की कोशिश की पर अब नींद आँखों से कोसो दूर थी. समझ में आ रहा था कि लीलाबारी सिर्फ एक साल का लेकिन सुपर हार्ड स्टेशन क्यों है.
सुबह ‘ताखे तुबिन’ नौ बजे ही इटानगर से भाड़े की इन्नोवा गाडी लेकर आ चुका था. तुबिन हमारे ही ऑफिस में काम करता है. यूं तो वो जीरो का रहने वाला है लेकिन इटानगर के पास रहता है क्योंकि उसकी पत्नी ईटानगर में जॉब करती है. मेहमानों को मैंने रात को ही मेरे घर पर नाश्ते का आमंत्रण दे दिया था, क्योंकि उनके नाश्ते के लिए आस-पास में कुछ भी ढंग का उपलब्ध नहीं था. तुबिन उन्हें टर्मिनल भवन से लेकर सवा नौ बजे घर आ गया. हम सब ने साथ बैठ कर नाश्ता किया. नाश्ते में आलू के परांठे और होम मेड नूडल्स थे. सब ने खाने की खूब तारीफ़ की और इस तारीफ़ से खुश हो कर श्रीमती जी ने रास्ते के लिए भी परांठे बाँध कर दे दिए. दस बजे तक हमारी गाडी एअरपोर्ट के गेट से बाहर निकल चुकी थी.
लीलाबारी से जीरो तक का रास्ता बेहद खूबसूरत और प्राकृतिक दृश्यों से भरा हुआ था. बादल, पहाड़, नदिया, छोटे-छोटे पहाडी गाँव, घाटियाँ, चोटियाँ, बाँध, झरने, हाथी आदि आदि..... लीलाबारी से जीरो तक की यात्रा की एक झलक आप पहले ही मेरी जुलाई वाली जीरो यात्रा में पा चुके हैं. जिन लोगो ने मेरे साथ ये चित्रात्मक यात्रा नहीं की है उनसे निवेदन है कि वो मेरी समय रेखा पर 26 जुलाई 2015 पर इसे देख सकते हैं. अत: यहाँ पर विस्तार से विवरण नहीं दे रहा हूँ, अन्यथा ये बहुत लम्बा हो जाएगा.
जब हमारी गाडी होटल ब्लू पाइन के पोर्च में रुकी तो शाम के तीन बज रहे थे. आप सोच रहे होंगे शाम को तीन कहाँ बजते हैं तीन या तो आधी रात को बजते हैं या दोपहर को. लेकिन उत्तर-पूर्व में तीन शाम को ही बजते हैं और वो भी अरुणाचल के सुदूर हिस्से जीरो में. गाडी से उतरते ही एक सर्द हवा के झोके ने हमें अन्दर तक कंपा दिया था. मोबाइल निकाल कर होम स्क्रीन पर ही तापमान देखा तो 11 डिग्री था. होटल के रिसेप्शन पर पहुँच कर औपचारिकताये पूरी. क्यूंकि हमारे कमरे पहले ही से बुक थे तो ज्यादा समय नहीं लगा. ये मेरी जीरो की दूसरी विजिट थी अत: कमरों की बुकिंग मैंने लीलाबारी से फोन पर ही कर दी थी. जब मैं जुलाई 2015 में यहाँ आया था तब बरसात का मौसम था और इतनी ठण्ड नहीं थी, लेकिन आज तो थोड़ी देर के लिए भी रिसेप्शन पर खड़ा होना मुश्किल लग रहा था. हम लोग जल्दी से अपने अपने कमरे में पहुचे, हीटर ऑन किया और सबसे पहले चाय आर्डर की. चाय पीने का प्रोग्राम मेरे ही कमरे में था तो बाकी दोनों लोग मेरे ही कमरे में आ गए. हमें अगले दिन डेपोरिजो के लिए निकलना था. ये अपर सुबनसिरी जिले का मुख्यालय है और जीरो से 170 किलोमीटर है. लेकिन पहाड़ो में दूरियां किलोमीटर में नहीं घंटो में बताई जानी चाहिए, विशेष रूप से उत्तर पूर्व में और उससे भी विशेष तौर जब अरुणाचल की बात हो रही हो. कारण? कारण ये है कि सड़को की हालत बहुत ख़राब है और आपको किसी भी तरह से 15-20 किलोमीटर प्रति घंटे से ज्यादा का औसत मिल ही नहीं पाता. अब कहने को तो जीरो लीलाबारी से 120 किलोमीटर ही हैं लेकिन हमें यहाँ पहुँचने में पांच घंटे लगे और जुलाई में बरसात के मौसम में तो सात घंटे लगे थे.
चाय पीते-पीते डेपोरिजो में एअरपोर्ट बनाने के लिए स्थल का चुनाव करने में हमें क्या क्या देखना है और मीटिंग में कौन कौन से बिंदु उठाने हैं इस पर विस्तार से चर्चा हुयी. इस चर्चा से पहले मुझे लग रहा था कि मैं ही होम वर्क करके आया हूँ लेकिन अब पता लगा कि टीम के दोनों अन्य सदस्य भी विषय पर खासा ज्ञान रखते थे और पूरी तैयारी से आये थे. मैं तकनीकी बातो की चर्चा करके आपको बोर नहीं करूंगा और इसे एक टेक्निकल पेपर बनाने कि बजाय एक यात्रा वृतांत तक ही सीमित रखने की पूरी कोशिश करूंगा.
बात करते करते कब छ: बज गए पता ही नहीं चला. बाहर पूरी रात हो चुकी थी. हमने बाहर जाने का प्रोग्राम बनाया कि क्यों ना स्थानीय बाजार को देखा जाए. हमारे वाहन चालक ने हमें ऐसा ना करने की सलाह दी और बताया कि ये सुरक्षित नहीं होगा. वैसे भी सात बजे तक पूरा जीरो बन्द हो जाता है. इस पर हमने सिर्फ गाडी में बैठे-बैठे ही घूमने की बात की और जीरो का एक चक्कर लगाया. कोई खास बात नहीं हुयी. सामान्य सा एक पहाड़े क़स्बे में जैसा होता है वैसा बाजार था. ठण्ड अपने चरम पर थी. बाजार में भीड़ बहुत कम थी और दुकाने धीरे-धीरे बंद हो रही थी. लौट कर खाना खाया, टीवी देखा और सो गए. सोने से पहले होटल वालो ने हमें गर्म पानी का एक थैला दिया, जिसके ऊपर तकिये के जैसा एक कवर चढ़ा हुया था. इसे हमें रजाई के अन्दर रख कर सोना था ताकि रजाई अन्दर से गर्म रहे और ठण्ड ना लगे. वाकई ये उपाय बड़ा कारगर सिद्ध हुया.
अगले दिन तुबिन ठीक साढ़े नौ बजे ही मेरे रूम में आ गया था. अपनी तरफ से जल्दी करते करते भी निकलते निकलते 10 बज ही गए. तुबिन का सुझाव था कि हम उसके गाँव होते हुए चले क्योंकि आज गाँव में एक पारम्परिक पूजा का आयोजन था. देर तो हो रही थी लेकिन वहां की सभ्यता-संस्कृति देखने की उत्सुकता भी थी. हमारा होटल हापोली में था और तुबिन का गाँव होन्ग में. पन्दरह बीस मिनट की यात्रा के बाद हम होन्ग पहुँच गए.
होन्ग गाँव का पूरा दृश्य ऐसा था जैसे हम किसी हॉलीवुड फिल्म के सेट पर पहुँच गए हों जिसमे ईसा पूर्व के समय पर बन रही किसी फिल्म का किसी कबीले का दृश्य हो. स्थानीय शैली में बने हुए बांस के मकानो की एक लम्बी श्रृंखला थी. हर घर के बाहर बांस का ही एक या दो अंग्रेजी के अक्षर टी के आकार का कुछ ढांचा था. इसे बाबो कहते है और ये उस घर में उपलब्ध पुरुषो की संख्या का सूचक होता है. छोटी-छोटी बहुत कम चौड़ी गलियाँ थी. काफी सारी मुर्गियां इधर उधर घूम रही थी. यही एक चौराहे के पास एक पांच-छ: फुट ऊँचा मचान था जिस पर चार पांच लोग बैठे हुए थे.
तुबिन ने बताया कि ये लापंग है. इस पर बैठ कर ही पंचायत सारे विवाद सुलझाती है. लापंग पर स्त्रियों का चढ़ना निषेध है. बीच में नीबू (पुजारी) बैठे हुए कुछ अस्पष्ट सी भाषा में कुछ बुदबुदा रहे थे. नीबू की वेशभूषा बड़ी ही विचित्र थी. उनके गले में बहुत सारी मालाये थी, जो की कौड़ियो और विभिन्न प्रकार के रंग बिरंगे पत्थरों की थी. उनके सर पर एक बड़ी अजीब सी टोपी थी जिसमे कुछ चिड़ियाओं के पंख और चोंच लगी हुयी थी. कानो में बहुत बड़े बड़े कुंडल थे. लापंग के नीचे एक मिथुन (गाय की ही तरह का एक अर्ध जंगली पशु) बंधा हुया था. तुबिन ने बताया कि पूरे दिन पूजा होगी और शाम को इस मिथुन की बलि दी जायेगी.
तुबिन ने बताया कि क्योंकि हम लोग नदी पार करके आये हैं इसलिए बिना शुद्धिकरण के वो हमें अपने घर नहीं ले जा सकता. वो हमें पास ही में बने अपनी बहन के घर ले गया. ये घर एक पूरा का पूरा बांस से बना था और जमीन से पांच-छ: फुट ऊँचे एक मचान पर था. ऐसा घर को बरसात के पानी से बचाने के लिये किया गया था. घर के बीचो बीच आग जल रही थी और हांडी में कुछ पक रहा था. इस आग के थोड़ा ऊपर एक झूला था जिसमे बहुत सारी लकडियाँ रखी हुयी थी. इस तरह आग की गर्मी और धुएं से ये ऊपर वाली लकडियाँ पूरी तरह सूख कर भविष्य के लिए तैयार हो जाती थी. ये ही रसोई घर भी था और ड्राइंग रूम भी. इसके अतिरिक्त घर में दो और कमरे थे जो कि सोने के लिए थे.
तुबिन अपातानी जनजाति से था और ताखे उस की उप जनजाति थी. उसने ही हमें बताया कि अरुणाचल में लगभग 25 जनजातियाँ है जिनमे निशी, अपातानी, गालो, आदि, तागिन, मोनपा आदि प्रमुख है. जीरो में ज्यादातर लोग अपातानी हैं, तो ईटानगर में निशी और डेपोरिजो में तागिन. इसके बाद उपजातियां हैं जो सौ से भी ज्यादा है. तुबिन की बहन का नाम हीबू अनिया था. वो शादी से पहले ताखे अनिया थी लेकिन शादी के बाद हीबू अनिया हो गयी थी. अनिया ने हमें चाय या स्थानीय मदिरा, जिसका नाम ओ था, का प्रस्ताव दिया. हमने छोटे-छोटे गिलासों में चावल से बनी हुए ‘ओ’ चखी. बड़ा ही अजीब सा कसैला सा स्वाद था. फिर उसने बताया कि अभी एक डेढ़ घंटे में हीबू कम्युनिटी की सभी बहुएं अपनी पारम्परिक वेशभूषा धारण करके एक जुलूस जैसा निकालेंगी और पूजा स्थल तक जायेंगी. हमने इतनी देर तक रुकने में असमर्थता जताई तो उसने अपनी सारी मालाएं और आभूषण हमें दिखाये. हमारे लिए ये सब रंग-बिरंगे पत्थरो की मालाये थी, लेकिन उसने बताया कि एक-एक माला की कीमत लाखो में है और एक-एक पत्थर की हजारो में. फिर उन्होंने वो सारी मालाये पहन कर हमारे साथ कुछ फोटो भी खिंचवाए. तुबिन के जीजाजी, हीबू सा, ईटानगर में सरकारी नौकरी में थे और अनिया वही पर अपना ब्यूटी पार्लर चलाती थी. ये दोनों लोग सिर्फ पूजा के लिए जीरो आये हुए थे.
हमारे लिए सबसे विचित्र अगर कुछ था तो वो थी अनिया की सास. उनके पूरे चेहरे पर टेटू गुदे हुए थे और उनके दोनों नथुनों में बहुत बड़े-बड़े बटन जैसा कुछ पहना हुया था. इसकी वजह से उनकी नाक बहुत ही फ़ैल गयी थी और पूरा चेहरा काफी कुरूप लग रहा था. तुबिन ने बताया कि इस पूरे मेकअप का उद्देश्य चेहरे को कुरूप बनाना ही है. दरअसल पुराने समय में कबीलों के बीच होने वाली लड़ाईयों में जीतने वाला कबीला हारने वाले कबीले की स्त्रियों का अपरहण कर लेता था. अपनी स्त्रियों को इससे बचाने के लिए चेहरे को कुरूप बनाया जाता था. हांलाकि 1973 के बाद से समाज ने इसके विरुद्ध एकमत से फैसला लेकर इस परम्परा को बन्द कर दिया है. ये आखिरी पीढी थी जो इस तरह की किसी परम्परा का प्रमाण थी.
अनिया ने हमसे दोपहर के खाने तक रुकने और खाना खा कर जाने का काफी आग्रह किया किन्तु हमें 170 किलोमीटर जाना था और पहले ही 11 बज चुके थे. हमने बड़ी विनम्रता से उनसे क्षमा माँगी और विदा ली.