लौट के बुद्धू घर को आये; भाग-1
August 22, 2015 at 9:37pm
गत वर्ष फरवरी में अमेरिका जाने का मौका मिला. जाने से पहले मैंने बड़ी ख़ुशी ख़ुशी फेसबुक पर स्टेटस अपडेट किये. सारी दुनिया को बताया कि मैं अमेरिका जा रहा हूँ. अपना पूरे दस दिन का कार्यक्रम लिखा और अपना अंतर्राष्ट्रीय नंबर सभी मित्रो को दिया. लौटने के बाद मैंने एक संक्षिप्त सा अपडेट किया “जान बची और लाखो पाए लौट के बुद्धू घर को आये”. काफी मित्रो ने इस अपडेट का कारण पूछा. एक दो लाइन में बताना संभव नहीं था और लंबा लिखने का मूड नहीं था. आज मूड है आज मैं आपको बताता हूँ कि अमेरिका यात्रा कैसी रही.
एक अन्तराष्ट्रीय प्रशिक्षण के लिए विदेश जाने का मौक़ा था और इसके लिए कई देशो में से किसी एक का विकल्प चुनना था. हममे से काफी लोगो ने बड़े उत्साह से अमेरिका चुना. इस चुनाव का कारण सीधा सा था. एक तो अमेरिका विश्व शक्ति है और सबसे आधुनिक देशो में माना जाता है. दूसरे वीजा सीधे १० साल का मिलने वाला था जिसकी वजह से अगले दस साल तक कभी भी दोबारा जाया जा सकता है.
कैसे क्षेत्रीय मुख्यालय और निगमित मुख्यालय से अनुमोदन मिला, फिर ईटीनरी अप्रूवल, फिर विदेशी मुद्रा का मिलना, दो दो बार यू एस कोंसुलेट में इंटरव्यू और फिर वीजा. इस सब बातो पर अलग से एक उपन्यास लिखा जा सकता है. खैर आखिरकार एक फरवरी दो हजार चौदह का दिन आ ही गया.
शनिवार के दिन यूं तो छुट्टी होती है लेकिन कुछ काम से ऑफिस जाना पडा. एक-दो बजे तक वापस आकर तैयारी की और तीन बजे घर से निकले. चार बजे की ट्रेन पकड़ कर आठ बजे तक मुंबई पहुँच गए. अँधेरी से टैक्सी लेकर आठ-साढ़े आठ तक एअरपोर्ट पहुँच गए. देर रात 0240 की फ्लाइट थी तो हमें कुछ काम नहीं था. ऐसे ही बैठे-बैठे समय की ह्त्या करते रहे. बारह बजे के आसपास चेक-इन वगैरहा शुरू हो गया था. सब कुछ सामान्य ही था. एयर फ्रांस की फ्लाइट टाइम पर थी. हवाई जहाज एयरबस ३३२ था. मॉडल इस लिए बताया है कि आप समझ सकें कि उसकी यात्री क्षमता २५० यात्रियों की थी. मुंबई से पेरिस की उड़ान दस घंटे में पूरी होनी थी. सुबह के तीन बजे फ्लाइट टेक ऑफ हुयी. नींद तो कहाँ आनी थी वो भी इकॉनमी क्लास की सीट पर. सच में अमानवीय. जिस सीट पर यात्री को १० घंटे बैठना हो, वो भी रात के समय, उस सीट पर सोना या लेटने तो भूल जाईये आप पैर भी मोड़ कर ऊपर नहीं रख सकते और ना ही आगे फैला सकते हैं. अब दस घंटे तक मूर्ती की तरह सीधे बैठ कर कोई कैसे सो सकता है. थोड़ी सी मदद की उस मदिरा ने जो उन्होंने बड़े ही अपमान और उपेक्षा के साथ परोसी. दूसरा पैग मांगने पर कहा कि वो एक साथ नहीं मिल सकता और सिर्फ नेक्स्ट राउंड में ही मिलेगा. हम भी पक्के हिन्दुस्तानी थे. मैंने अपनी पत्नी से कहा कि तुम भी अपने लिए एक पैग मांग लो. ये युक्ति काम कर गयी और किसी तरह मुझे दो पैग मिल गए. दोनों पैग पीने के बाद शायद कुछ देर की बेहोशी में शरीर को कुछ आराम मिला हो मिला हो अन्यथा बहुत ही कष्टदायी यात्रा रही. किसी तरह से राम राम करते दोपहर लगभग साढ़े बारह बजे हम पेरिस पहुंचे. पेरिस एअरपोर्ट की ख़ूबसूरती बेमिसाल थी. सारी दुनिया के बड़े बड़े लक्ज़री ब्रांड्स के शोरूम. स्टार बक्स के काउन्टर से उड़ती हुयी कॉफ़ी की खुशबू. बड़े बड़े ऊँची छत वाले हाल्स. सब कुछ हाई क्लास और डिज़ाइनर. लेकिन इस सब का आनंद लेने के लिए तन और मन भी तो ठीक होना चाहिए. ३० घंटे से ज्यादा से ना सोयी हुयी जलती हुयी आँखे, १० घंटे तक एक ही मुद्रा में सीधे बैठा हुआ थका हुया शरीर, दर्द करती हुयी कमर, पूरा रूटीन बिगड़ जाने की वजह से ठीक से ना साफ़ हुया पेट. इस सब से ऊपर एक अनजाने माहौल की अजीब सी असहजता. खैर कॉफ़ी पी और पानी ढूँढा. मुझे पूरे एअरपोर्ट पर पीने का पानी नहीं मिला. कॉफ़ी डेढ़ डॉलर की थी और पीने का पानी दो डॉलर का; वो भी ५०० एम एल. लेकिन प्यास लगी हो तो पानी ही चाहिए. बड़ा दिल जला २६० रूपये का पानी पीने में; हमने दो बोतल ली थी.
अगली फ्लाइट ढाई घंटे बाद स्थानीय समय के अनुसार सुबह साढ़े दस बजे थी लेकिन भारत में उस वक्त दोपहर के तीन बज चुके थे. चेक इन किया और सही वक्त पर बोर्डिंग हो गयी और फ्लाइट चली पेरिस से मिनियापोलिस. इस फ्लाइट को भी १० घंटे लगने थे. इस में भी हमारा अनुभव कमोबेश वही रहा. बिज़नेस क्लास के यात्रियों के सामने फ्लाइट क्रू बिछा जा रहा था. उन्हें टेक ऑफ से भी पहले फलो का रस और मदिरा परोसी जा रही थी. हम ना सिर्फ इकोनोमी क्लास के यात्री थे बल्कि भारतीय भी थे और ये हमारे चेहरों पर लिखा था. मुझे ये कहने में कोई लज्जा नहीं है कि फ्लाइट क्रू का व्यवहार हमारे प्रति उपेक्षापूर्ण था. ये फ्लाइट एयर फ्रांस के साथ कोड शेयर में थी और डेल्टा एयरलाइन द्वारा चलाई जा रही थी. ये एयरबस ३३० था और इसकी क्षमता भी २५० यात्रियों की थी. फ्लाइट में इन-फ्लाइट एंटरटेनमेंट सिस्टम था लेकिन जब मैंने एयरहोस्टेस से ईयर फोन माँगा तो उसने बताया की वो पेड है और तीन डॉलर में मिलेगा. मुझे गुस्सा तो बहुत आया लेकिन १० घंटे जो काटने थे इस लिए ले लिया. ज्यादातर कंटेंट पेड थे और उसमे सीट के पीछे लगे स्क्रीन के पास ही क्रेडिट कार्ड स्वाइप करने का प्रावधान था. हमने मुंबई से ही गर्दन के तीनो तरफ लगाने वाला तकिया खरीद लिया था. इसका उपयोग लोग बैठे बैठे सोने में करते हैं ताकि गर्दन किसी ओर ना लुढ़क जाए लेकिन मुझे इसका कोई खास लाभ प्रतीत नहीं हुआ. हालांकि मेरी पत्नी की स्थिति मेरे से बेहतर थी और वो थोडा बहुत सो पायी. मुझे नहीं लगता की उस इतनी छोटी सीट पर कोई बैठे बैठे सो सकता है. कम से कम मैं तो नहीं. कई बार तो नींद पूरी ना होने की वजह से मुझे सफोकेशन अर्थात दम घुटने जैसा प्रतीत हुआ. लेकिन उत्तरी अटलांटिक महासागर के उपर कम से कम तीस से चालीस हजार फीट की ऊँचाई पर उड़ते हुए हवाई जहाज में ना ही खिड़की खोलना संभव था और ना ही ड्राइवर को बोल के थोड़ी देर रुकवाना. हाँ ओक्सिजन मास्क का ख्याल मुझे आया था लेकिन हालत इतनी भी खराब नहीं थी की मैं इतना बड़ा दृश्य निर्मित (सीन क्रिएट) करता. कुल मिला कर इस फ्लाइट का अनुभव भी पहले जैसा खराब ही रहा.
किसी तरह स्थानीय समय के अनुसार दिन के एक बजे हम मिनियापोलिस पहुंचे. इस वक्त भारत में अगले दिन के रात के साढ़े बारह बज चुके थे. हमने कन्वेयर बेल्ट से सामान लिया और एक बहुत लम्बी लाइन में खड़े हो गए. इसमे लगभग एक घंटे के बाद हमारा नम्बर आया. क्योंकि ये हमारा अमेरिका में प्रवेश था तो काफी सख्त सुरक्षा प्रक्रियाओं से हमें गुजरना पड़ा. हमारी सारी खाने पीने की वस्तुए जब्त कर ली गयी. फल फेंक दिए गए. और एक बहुत छोटी सी गलती पर गिरफ्तार करने की धमकी भी दी गयी. बात सिर्फ इतनी सी थी कि हमारे दोनों के बोर्डिंग कार्ड पर एक एक रजिस्टर्ड बैग बुक था लेकिन डिक्लेरेशन फॉर्म में पत्नी को असुविधा से बचाने के लिए दोनों बैग मैंने अपने फॉर्म में लिख दिए थे. खैर किसी तरह इस सुरक्षा जांच से निकल कर मैंने एक जगह इकट्ठी करके रखी ट्रोली खीचने की कोशिश की तो वो दो तीन बार कोशिश करने पर भी बाहर नहीं आयी. ध्यान से देखने पर पता चला वो एक हैंडल से बंधी है और साथ में क्रेडिट कार्ड स्वाइप करने का स्लॉट है. अर्थात ट्रोली भी निशुल्क नहीं थी और उसके लिए भी दो या तीन डॉलर चुकाने थे. हमने अपने बैग्स का हैंडल बाहर खींचा और उन्हें पहियों पर खीचते हुए चल पड़े अगली फ्लाइट की तलाश में जो कि हमें मिनियापोलिस से सेनफ्रांसिस्को ले जाने वाली थी.
(सेनफ्रांसिस्को, लासवेगास और ग्रैंड कैनियन की बाते अगले अंक में)