उनका नाम था ओमप्रकाश मास्टरजी, हाँ यही नाम था. सर नेम आज याद नहीं है या मान लीजिये मैं बताना नहीं चाहता. ये बात तीसरी क्लास की.... नहीं नहीं... चौथी क्लास की है. क्यों ना मास्टर जी की बात से पहले थोड़ा सा स्कूल की बात कर लें?.
नवीन प्राइमरी पाठशाला, नगर पालिका क्षेत्र, बडौत, जिला मेरठ को लोग शोर्ट में नवीन स्कूल ही कहते थे. बडौत ना गाँव था और ना शहर. बडौत था पश्चिमी उत्तरप्रदेश के मेरठ जिले का एक छोटा सा कस्बा, जिसमे मेरे पिता जी एक इन्टर कॉलेज में लेक्चरार अर्थात व्याख्याता थे. इसी लिए हम बडौत में रहते थे. बडौत आसपास के ६०-७० किलोमीटर के दायरे में शिक्षा और व्यापार का प्रमुख केंद्र था क्योंकि बडौत, मेरठ और दिल्ली तीनो एक त्रिभुज के आकर में थे और ये दिल्ली और मेरठ दोनों से ६० किलोमीटर की सामान दूरी पर था. मेरा जन्म और प्रारम्भिक शिक्षा यही पर हुयी. सॉरी सॉरी नवीन स्कूल.... हाँ तो ये नवीन स्कूल किसी सेठ के एक टूटे फूटे पुराने से भवन में चलता था, जिसमे तीन कमरे और एक बरामदा था. स्कूल पांचवी तक था तो कक्षायें भी पांच थी. तीसरी, चौथी और पांचवी कक्षायें कमरों में लगती थी और पहली दूसरी बरामदे में. पांचवी वाला कमरा ही हेडमास्टर जी का ऑफिस भी था. कुल पांच अध्यापक थे लेकिन हर वक़्त एक ना एक के छुट्टी पर रहने के कारण शायद ही कभी पांचो अध्यापक एक साथ स्कूल में होते हो. बैठने के लिए जूट की लगभग तीन फूट चौड़ी एक लम्बी सी पट्टी होती थी जिसे फर्श कहते थे. ये फर्श काफी पुराने और फटे हुए थे तथा पर्याप्त मात्रा में भी नहीं थे तो ज्यादातर छात्रो को अपने बैठने की जूट बोरी खुद ही घर से लाने पड़ती थी. बोरी को चोरी से बचाने के लिए उस पर स्याही से छात्र का नाम लिखा होता था. फिर भी बोरी चोरी होना, दूसरे का नाम मिटाना, मास्टरजी से शिकायत और फिर दोषी की पिटाई ये सब रोजमर्रा के काम थे. सुबह स्कूल खुलने पर फर्श को बिछाना और स्कूल बंद होने के वक़्त उसे गोलाकार लपेट कर रखना ये सब काम छात्रो के जिम्मे ही थे क्योंकि अध्यापको के अतिरिक्त अन्य कोई स्टाफ स्कूल में नहीं था. इसी कारण से फर्श बिछाना, मास्टर जी की कुर्सी बिछाना, उन्हें पानी पिलाना, आधी छुट्टी और पूरी छुट्टी की घंटी बजाना ये सब काम छात्रो को ही करने पड़ते थे और जिसे भी ये काम करने का सौभाग्यशाली अवसर मिलता था उसे मास्टरजी का कृपा पात्र समझा जाता था. और अगर मास्टर जी किसी का खाना खा लें तो मान लीजिये कि वो किस्मत का बहुत ही बड़ा धनी है. ज्यादातर लड़के खाना खाने आधी छुट्टी में घर जाते थे और स्कूल में खाना नहीं लाते थे तो कई बार मास्टर जी लडको से पूछना पड़ता था कि किसके घर क्या बना है और अपनी पसंद के अनुसार लडको के घर से भी खाना मंगवा लिया करते थे.
आधी छुट्टी से पहले हिंदी और आओ करके सीखे (विज्ञान) पढ़ाया जाता था और आधी छुट्टी के बाद हमारी दुनिया हमारा समाज (सामाजिक विज्ञान) और गणित. अंग्रेजी किस चिड़िया का नाम है ये हमने पहली बार छटी क्लास में सुना था. पूरी छुट्टी से पहले पहाड़े सुने जाते थे. जो नहीं सुना पाता था उसे हथेली पर मास्टर जी के डंडे खाने पड़ते थे. जो सुना देता था उसकी छुट्टी और जो नहीं सुना पाता था उसे डंडे खाने के बाद भी वही खड़े रह कर पहाड़े याद करने पड़ते थे. दोबारा, तिबारा पहाड़े सुने जाते थे और बार बार डंडे भी. छुट्टी सिर्फ और सिर्फ पहाड़े सुनाने के बाद ही होती थी. पूरी छुट्टी के बाद स्कूल के बाहर वाले बिजली के खम्भे को अपने लकड़ी की तख्ती से पीटना नित्य का मनोरंजन और छुट्टी होने का सांकेतिक हर्षनाद होता था.
ओमप्रकाश मास्टरजी पर आने से पहले कुछ विचित्र किन्तु सत्य परम्परायें इस नवीन स्कूल की आपको बता दूँ. यह कोई खास बात नहीं थी कि एक मास्टर जी लडको को बुरे से बुरी गालियाँ भी अपने मूड के हिसाब से दे देते थे. अगर पढ़ते वक़्त वो किसी का ध्यान किताब की बजाय कहीं और देख लेते थे तो “क्यों बे मा....... उधर क्या देखता है उधर क्या तेरी मैय्या नाच रही है” कह कर उस उद्दंड का सार्वजनिक सम्मान करने से बाज नहीं आते थे. इन मास्टर जी का नाम मैं आपको नहीं बताउंगा वरना आप समझ जाओगे के मैं ईलम चंद मास्टरजी की बात कर रहा हूँ. हेड मास्टर जी लोरेन्स डिसूजा थे जो की ताजे ताजे कनवर्टेड क्रिश्चन थे और कस्बे की दलित बस्ती में रहते थे. दो और मास्टर जी भी थे जिनके नाम मैं भूल गया हूँ. गलती होने पर मुर्गा बनाना, डंडो से पिटाई, थप्पड़, दो चाको के बीच कान का सबसे नीचे वाला हिस्सा रखके धीरे धीरे मसलना ये सब सर्वस्वीकृत दंड के प्रावधान थे लेकिन जो सब से विचित्र परम्परा थी वो ये थी कि अगर कोई लड़का स्कूल नहीं आता है तो चार पांच बलिष्ठ लड़के उसे उसके घर से बलपूर्वक स्कूल लाने के लिए भेजे जाते थे. वो बाउंसर लोग उसे बाकायदा हाथ और पैर से पकड़ कर डंडा-डोली करके हवा में झुलाते हुए स्कूल लाते थे. पूरे रास्ते में उसका पेट और मुंह आकाश की ओर होते थे लेकिन विद्यालय आगमन के पश्चात् गुरुदेव की आज्ञा पर उस आर्यपुत्र को १८० डिग्री के कोण पर घुमा दिया जाता था. अर्थात अब उसका तेजस्वी मुख मंडल और उदर का भाग भूमि की ओर होता था और उसकी पीठ, कमर तथा पृष्ठभूमि भूमि आकाश की ओर, तत्पश्चात गुरुदेव की आज्ञानुसार उसकी पृष्भूमि को वस्त्रो के आवरण से मुक्त कर दिया जाता था. अब गुरुदेव किसी वृक्ष की लपलपाती हुयी शाखा की सहायता से उस अज्ञानी की पृष्ठभूमि पर अपने पावन करकमलो से प्रहार कर उस दोषी को दण्डित करते थे. प्रत्येक प्रहार पर बालक के मुंह से ह्रदय विदारक चीखे निकलती और मैं कहीं अन्दर तक काँप जाता था कि अगर कभी मुझे ये सजा मिली तो क्या होगा. पृष्ठ भूमि की सेवा के लिए प्रयोग होने वाले ये डंडी अलग तरह की होती थी जबकि हाथ पे मारने वाला डंडा अलग जोकि एक दम ठोस होता था. लड़के इन उपकरणों को प्यार से ज्ञानदेई कहते थे क्योंकि उनकी मान्यता थी की इन्ही उपकरणों के माध्यम से मास्टर जी हमें ज्ञान देते हैं.
चलिये भूमिका बहुत हो गयी अब सीधे आते हैं ओमप्रकाश मास्टर जी की बात पर और इस बात पर भी कि वो आज गुरु पूर्णिमा के पावन पर्व पर पैंतीस सालो बाद मुझे क्यों याद आ रहें है? एक बार ऐसा हुया कि........