===========
गुडिया (भाग-1)
===========
गुड़िया, इसी नाम से पुकारते थे सब उसे। छोटी सी चिड़िया, जिसकी चहक से घर का कोना कोना गूंजता रहता था। हाथ नहीं आती थी किसी के, दो पल के लिए अकेला छोड़ दो, चार मोहल्ले दूर मिलती। छोटी सी पर एकदम शैतान की नानी। एक बड़ी बहिन भी थी। शायद पांच-छह साल बड़ी। कुछ ना बोलती, शांत ही रहती थी, फिर भी ना जाने क्यों दादी उसे हर वक़्त डांटती ही रहती थी। कई बार वो छत पर एक कोने में घुटनों में सिर दबाये रोया भी करती पर गुडिया कुछ समझ नहीं पाती, बस डरी हुई सी देखती ही रहती। बहिन को ही नहीं दादी माँ और गुडिया को भी ना जाने किस बात पर कोसती रहती, हर वक़्त चीखना चिल्लाना जैसे उनकी आदत में शुमार था।
घर ज्यादा बड़ा नहीं था, दो कमरों, चार चीज़ों वाला घर। पिताजी कपडे वाले लालाजी के यहाँ मुनीम हुआ करते थे। सुबह निकलते, देर रात ही घर आते, रविवार को आधे दिन की छुट्टी मिला करती। उस वक़्त भी पिताजी कुछ कागजों किताबों में व्यस्त रहते। जब बच्चे नहीं पैदा कर रही होती तो माँ, औरतों के कपडे सिला करती थी सलवार सूट वगरह। आँखों पर अंटे वाली कांच की बोतल के पैंदे जितना मोटा चश्मा चढ़ गया था। कभी बडकी तो कभी छुटकी से मशीन की सुई में धागा डलवाया करती, पर सिलाई मशीन की खट-खट बंद नहीं होती। दोनों बेटियों को बहुत प्यार करती थी माँ। रात को सोते वक़्त एक ना एक कहानी जरूर सुनाती। बिना माँ से कहानी सुने तो गुडिया को नींद ही नहीं आती थी। बहुत प्यारी थी माँ।
चौथे जन्मदिन पर छोटा भाई मिल गया। खेलने के लिए जीता जागता खिलौना। हमेशा चिढ-चिढ करने वाली दादी आजकल बेहद खुश रहती थी। पर बदली नहीं थी छोटे भैय्या को हाथ भी नहीं लगाने देती थी, पास जाते ही गन्दा सा मुंह बनाकर चिल्लाती। पर वो भी कम ना थी जब छोटू भैय्या माँ की गोद में होता तो उसके साथ ढेर सारी मस्ती कर दिन भर की कसर निकाल लेती।
गुडिया बड़ी हो रही थी अब उसका भी दाखिला बड़की वाले सरकारी कन्या विद्यालय में करवा दिया गया। स्कूल में ढेर सारे दोस्त मिले, बस फिर क्या था, साइकिल हवाई जहाज बन गयी। सार दिन उधम, कभी कहाँ तो कभी कहाँ। चार कक्षाओं के लिए एक अध्यापक थे तो पढ़ाई लिखाई तो उतनी नहीं हो पाती थी पर फिर भी बहुत कुछ सीख रही थी।
माँ आजकल बीमार बीमार सी रहने लगी थी, वजन बहुत कम हो गया था। सारा दिन खांसती रहती। पता नहीं क्या हो गया था पर फिर भी सिलाई मशीन नहीं छोडती थी। कुछ दवाइयां भी खाती थी। आजकल कुछ ज्यादा ही गले लगाती थी अपने बच्चों को। कभी-कभी रो भी देती। चेहरे का रंग हल्का काला सा पड़ने लगा था। आँखें अन्दर धस सी गयी थी। चलता फिरता कंकाल हो गयी थी माँ।
एक दिन स्कूल की पूरी छुट्टी की घंटी बजने से पहले ही भोपाल वाले मामा गुडिया को लेने आ गए, उनको देख कर गुडिया बहुत खुश हो गयी, क्योंकि हर बार मामा उसके लिए कुछ ना कुछ लेकर जरूर आते थे। इसी उम्मीद में तेज़ तेज़ लगभग दौड़ती हुई घर की तरफ चलने लगी। गुडिया जब घर पहुंची तो देखा घर के बाहर लोगों का हुजूम लगा है। कुछ औरतें और दादी रो रही थी, पिताजी एक कोने में चुपचाप खड़े थे, बडकी उनसे लिपट कर फूट फूट रो रही थी। कमरे के बीचों बीच माँ लेटी थी, सफ़ेद चादर में लिपटी हुई। मामा ने बताया माँ हमेशा के लिए भगवान जी के घर चली गयी …………………….
for more updates please like "Diary of an Indian" @ facebook

Sign In to know Author