एक वक़्त था जब..
सुबह कानो में गुदगुदी कर जगाती थी..
शर्त लगा करते थे..
सूरज से..
पहले उठने की..
शाम नुक्कड़ों पे..
चाय के साथ..
इंतज़ार करती थी..
और फिर चाय के बाद..
हाथ थामे..
बाजार से..
घर तक..
शाम हमे..
बिलकुल सही सलामत..
रात के हवाले कर जाती थी..
वो रात ..जो कभी..
गर्मी की पुर्वायिओं पे सवार..
खुली छतो पे..
मिलने आती थी..
तो कभी..
सर्द कुहासो से खुद को बचाकर..
रजाई में घुस जाती थी..
कई बार तो..
बालकनी ने छुपके..
मुझे और रात को..
साथ देख लिया..
तो कई बार ..
नींद ने मुझे..
रात से मिलने न दिया..
ख्वाब भी तब..
बस उठते थे बुलबुलों की तरह..
और सुबह फुट जाते थे...!!
लेकिन अब..
घड़ी कानो में चिल्लाकर जगाती है..
रेस होती है वक़्त के साथ..
ऑफिस पहुचने की..
दिन बेचारा भागता ही रहता है..
शाम अब भी शायद..
इंतज़ार करती है नुक्कड़ पर..
पर मैं नहीं पहुच पाता..
रात तो रोज दीवानों की तरह..
नींद के आने का इंतज़ार करती है..
और नींद..
बेचारी वो भी क्या करे..
परेशानियों में फंसी हुई..
कभी देर..
तो कभी सबेर आती है..
ख्वाबो ने अब इन आँखों से..
डेरा बदल दिया है..
पुरवाईयाँ मडराती होंगी..
अब भी छतों पे..
पर इन बंद कमरों ने..
मुझे जकड़ सा लिया है...!!
माना की वक़्त बदलता है..
और मुझे इससे कोई ऐतराज भी नहीं..
पर ये क्या माजरा है..
मौसम भी बदल गए..
सुबह..शाम..रात भी..
अगर बदल जाता मैं भी तो सब ठीक था..
मगर ऐसा मालूम होता है..
की दिमाग अकेला ही इस वक़्त में आया है..
दिल तो अब भी..
उसी वक़्त में कही..
नुक्कड़ पे..शाम के साथ..
चाय की चुस्की ले रहा है...!!!!!
-amrit raj