दस बजे...
खामोश है,
शहर की हवा;
धुंए का गुबार सा उठा है;
कोनो-कोनो में.
सायरन की आवाज
चीख़-चीख़ कर रुक जाती है.
सड़क और गलियों में
आज सन्नाटे का डेरा है.
केवल;
एम्बुलेंस के दौड़ने
और
पुलिस-सिटी की आवाज है.
यह
कुछ पलों की नहीं;
कोई
घंटा भर
पहले की ही बात थी,
जब
सब ओर
लोगों की रेल-पेल थी.
रोज की तरह
घर से
कोई ऑफिस जाने को/
दुकान खोलने को/
स्कूल जाने को/
दूध लेन को/..............
किसी न किसी काम से
घर से निकला था.
रोज की तरह कोई
बस पकड़ रहा था,
कोई मेट्रो की राह था.
पर......
दस बजे के आसपास
जब
भीड़ का उफान था,
शहर के
उसी व्यस्त चोराहे पर;
लगातार ब्लास्ट के धमाकों ने
सब ओर
सन्नाटा दौड़ा दिया था.
अब;
न किसी कार/बस/मेट्रो
की विसिल सुनाई दे रही थी.
सब ओर;
केवल
सिसकियों/, कराहों/ आहों का आर्तनाद था.
खून से सने चेहरे,
लहू से लथपथ शरीर;
यहाँ-वहाँ छितरे थे.
चौराहे पर लगी घड़ी में,
अभी भी
सुबह के दस बज रहे थे.
veena sethi.