भारत कचरे का डिब्बा बन चुका है, भारत के बाज़ार चीन के सस्ते, काम चलाऊ सामानों से अटे पड़े है। खिलोनों से लेकर होली के रंग, दीवाली की जल बुझ बत्तियों तक ना जाने क्या क्या गली मोहल्लों कि दुकानों में भरा जा रहा है। सस्ती चीज़ें ही नहीं महंगे मोबाइल, टेबलेट, कंप्यूटर से लेकर पॉवर प्लांट इक्विपमेंट भी चीन से ही आ रहे है। हर पैकेट पर लिखा होता है "Made in China"
कल का पता नहीं पर आज तक तो मिटटी के दीपक out of fashion नहीं हुए है। आज भी दीपावली पर मेरे घर के आँगन को वे झिलमिल दीये रोशन करते हैं। बचपन से हर दीवाली वो दीये लाने का जिम्मा मेरे ही कंधो पर आता था। पहले अपनी साइकिल और आजकल मोटरसाइकिल पर थैला लटकाये मैं सीधा बाज़ार में पीपल के पेड़ के नीचे बैठ मिटटी के घड़े, सुराही, दीपक आदि बेचने वाली बड़ी अम्मा के पास पहुँच जाता। अम्मा साठ पैसठ कि रही होंगी, खड़ी बोली वाला दमदार व्यक्तित्व। बाउजी चुपचाप एक कोने में बैठे रहते थे निहायती सुस्त और ढीला आदमी, शायद इसलिए अम्मा को बागडोर अपने हाथ में लेनी पड़ी। निकम्मे मर्दों कि औरतों का यही हाल होता है, घर बाहर दोनों के बीच पिस कर रह जाती है जिंदगी। रेट एकदम वाजिब लगाती थी अम्मा। भाव ताव कुछ नहीं। पर ना जाने क्यों ऐसा रूल मेरे लिए नहीं था मस्कुराते मुस्कुराते मुझे दस पांच रूपये कम में दे दिया करती। इसलिए मेरी माँ तक भी मुझे ही भेजा करती थी "जा भैया तू ही ले आ" एक अनकहा सा रिश्ता था। हर दिवाली उनको देखे बिना पूरी नही होती थी।
इस दिवाली भी दीपक, फूल, पूजा के सामान की लिस्ट लिए मैं सुबह सुबह घर से निकल गया। पीपल के पेड़ के नीचे अम्मा ना दिखी, बाउजी से पुछा तो बोले उनको कैंसर हो गया था चार महीने पहले ही स्वर्गवास हो गया। पता नहीं क्या हुआ मेरी आँखें गीली सी हो गयी, दीपक नहीं लिए मैंने, गाडी उठायी और आधा घंटा यूँ ही इधर उधर डोलता रहा। कोई रिश्ता नहीं था फिर भी अंदर से रोना सा छूट रहा था। कुछ अजीब सा ही एहसास था। फिर कभी नहीं देख पाने का, दर्द था अंदर फिर कभी वो आवाज़ ना सुन पाने का। पल भर में गायब हो जाता है इंसान और हम ताकते रह जाते है। शायद यही जिंदगी है।
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