हर तरफ रौशनी, दुल्हन कि तरह सजे धजे बाज़ार, पटाखों से अटी पड़ी दुकाने। colorful मिठाइयां, भीड़ भड़क्के वाले जवेरी बाज़ार। भैया आ गयी दिवाली। बचपन से देखा है, दशहरा जाते ही महीना भर पहले से घर कि सफाई शुरू हो जाती थी और इस अभियान के दौरान ना जाने क्या क्या मिल जाता था। पिताजी के खोये हुए कागज़, माँ कि कोई पुरानी साड़ी, कुछ पुराने यादगार फोटोग्राफ और भी बहुत कुछ। तीन चार साल में एक बार चूने में रंग डलवा पुताई होती थी, Asian पैंट के डिब्बे उस वक़्त सिर्फ कार वालों के यहाँ ही आते थे। माँ पीछे नहीं रहती थी मेले ठेले से ना जाने क्या क्या इकठ्ठा करना शुरू कर देती थी, सजावटी सामान, नकली फूल वाले गमले, दीवार पर टांगने कि कुछ तस्वीरें। ठीक है छोटी छोटी खुशियां।
हमारे लिए तो बस पटाखे ही important थे, बाकि से हमे क्या मतलब। दीवाली के दस दिन पहले से ही सस्ते पटाखों कि खोज में सारी दुकानों पर मुआयना शुरू कर देते थे। इशारो इशारो में रोज़ पिताजी के कान में डाल देते थे कि पड़ोस के सभी बच्चो को पटाखे खरीद लिए हैं। हमे भी मिल ही जाते थे पर दिवाली से ठीक एक दिन पहले। बस यही थी हमारी खुशियां। हाँ दिवाली ख़त्म होते होते तक पिताजी का हिसाब किताब जरुर बिगड़ जाता था। लाजमी भी है मध्यम वर्गीय चोले में छिपे गरीबों का यही हाल होता है। घर चलाना है, बच्चों को पढ़ाना है, हारी बीमारी, वार त्यौहार, समाज शादी, लेन देन और ना जाने क्या क्या और इन सबके अलावा future के लिए सेविंग भी करनी होती है। कुल मिलाकर एक ऊँगली पर पहाड़ उठाना पड़ता है। नंगा रह नहीं सकते और पूरे कपडे खरीदने के लिए पैसे नहीं। बस ऐसी ही होती है middle class कि जिंदगी।
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