लड़ रही है अकेली
कोने में पड़ी लालटेन
जैसे लड़ता हूँ हर रात
मैं अपने ही आप से
जल रही लौ उधर
सुलग रहा ह्रदय इधर
क्या कहें मेरे अधर
शब्द हैं कहाँ किधर
संसार का सिर्फ सौंदर्य
जो मेरे नैन देखते हैं
शीशे के पीछे जलता नृत्य देखते हैं
अग्नि-वायु का क्रीडा कृत्य देखते हैं
खिड़की का टूटा शीशा
और चौमास का भीगा झोंका
और वाह रे तेरी हिम्मत
तू मर मर जी जी उठती है
ये कैसी चाहत जलने की
बिन जले नहीं सो पाता हूँ
तिल तिल करके यूँ गलने की
बिन दर्द नहीं मुस्काता हूँ
जब बत्ती तक जल जाती है
और फफक कर रो देती है आखिरी लौ
बेचैन पड़ा दुसरे कोने में मैं
मिटटी के तेल के धुएं में सांस लेता हूँ.
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- ASHISH CHAUHAN
Comments (10 so far )
MALLUMELODY
wow super
October 9th, 2013
No, I have to guess at some of it. Adjectives are the opposite side and whatever but it works when it's short.
October 9th, 2013
Author
Oh really. .. thanks a lot guys. Really wrote any poem after a long. Thanks David specially to you. I also would want to see how it looks like when translated :)
October 10th, 2013