ये जीवन पल पल बीत रहा
सागर साँसों का रीत रहा
ये दुनिया सब अनजानी सी
जीना लगता नादानी सी
इन कडवे से व्यवहारों में
फिर भी जीवन ढूँढा मैंने
कुछ निराधार आधारों में

सपने मेरे प्यारे प्यारे
सच होते होते टूट गए
मनमीत मेरे; मेरे साथी
जाने क्यूं मुझ से रूठ गए
अंधियारों और उजियारों में
मैं अब कितना एकाकी हूँ
अपने मन की दीवारों में

जैसी जिसको थीं ज़रूरतें
वैसी मेरी कीमत रख दी
मैं खुद ही खुद को भूल गया
ये मृत्यु है कैसी पल पल की
अपनों में और परायों में
मैं रोज़ यूं ही बिक जाता हूँ
इस दुनिया के बाज़ारों में

जो रूठ गए सो रूठ गए
क्या हुआ जो सपने टूट गए
लौ मन की मेरे जलती है
अंतर में आशा पलती है
दुनिया के झंझावातों में
मैंने अब जीना सीख लिया
भव सागर की मंझधारों में

-शिव

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