तेरा अस्तित्व है दीपक की लौ से होने वली विस्त्रत रोशनि की भाँति,
फ़िर क्यो प्रतीत हो रही है बुझी बुझी सी दुनिया की नजरॊ में?

तेरा अस्तित्व है नील समन्दर की भाँति विस्तृत,
फ़िर क्यो कैद है सीप के रूप में रुढ़िवादी विचारों रुपी जल में?

तेरा अस्तित्व है घनघोर बारिश की भाँति,
फ़िर क्यों व्यथित हो कर चन्द आँसुओं की तरह बह जाने से संतुष्ट है तू?

तेरा अस्तित्व है विशाल वृक्ष के समान,
फिर क्यों उसी वृक्ष में आशियाने के लिए छोटा सा कोना छीनने में सकुचा रही है तू?

तेरा अस्तित्व है सूरज के नूर की भाँति,
फिर क्यों काले बादलों के आगोश में आकर अपने नूर को समेटने की मोहताज़ है तू?

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