क्या लिखूं जिसके निशब्दो को तुम पढ़ सको ,
क्या कहूं जिसकी ख़ामोशी को तुम सुन सको ,
किस भाषा मे ह्रदय के भाव बुनू, गुनू, गुनगुनाऊं ,
जो तुमको वैसे ही छू लें जैसे मैं छूना चाहूं .
उदगार जिनकी अंशिता में समग्र ही समाये ,
आधार में जिनके स्वयं देवाधिदेव हर्षाएं ,
जो शक्ति की पराकाष्टा को भी लांघ जाएँ ,
ध्वजा पे जिनकी प्रेम का परचम लहराए .
शक्ति जिनकी काट दे द्वैत के बंधन सभी ,
पार निकलें प्रेम के और प्रेम को उबारें अभी ,
आशीष से विरल हो विषाद के कंटक सभी ,
लिखते लिखते रोकता हूँ लेखनी को कभी .
रुकता हूँ, शुरू करता हूँ और फिर रुकता हूँ ,
ह्रदय का ह्रदय से सम्बन्ध भी मानता हूँ ,
दायित्व इस का संवाद ह्रदय पे डालता हूँ ,
और सब छोड मैं तुम्हारे मैं में झांकता हूँ .
क्या लिखूं जिसके निशब्दो को तुम पढ़ सको ,
क्या कहूं जिसकी ख़ामोशी को तुम सुन सको...
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