दिल के बहुत भीतर
ज़ेहन की कई-कई परतों के नीचे.....
छुपा रखी है एक शिकायत
ख़ास तुमसे....
बस तुम्हारे लिए....
जब मिलोगे ...
निकाल कर रख दूँगी तुम्हारी हथेली पर
जलते अंगार सी,
पता है...
अच्छा तो नहीं लगेगा तुम्हें,
बुरा भी मान जाओ शायद...
या कौन जाने...
सिरे से नकार डालो इसके वजूद को ही ,
ख़ारिज कर दो इसे
किसी कमज़ोर गवाही की तरह...
मेरी हर शिकायत के साथ
हर बार ऐसा ही तो किया है तुमने...
पहले नकारना...
फिर हँसी में उड़ा देना...
और कहना....
'' उस बात का ये मतलब नहीं था ''
हाँ....पता है....
एक बार फिर तुम कर सकते हो ऐसा ही....
लेकिन इससे मेरा इरादा नहीं बदल जाता....
ना ही कम होती है तपिश उस अंगार की ...
जिसे छुपा कर रहा है मैंने
न जाने कितने जन्मों से
तुम्हारी हथेली पर रखने के लिए...
एक शिकायत....
तुमसे ही....,
तुम्हारी ही...!!!