मैं हवा चंचल सी मदमस्त बल खाती हुई,
पेड़ों के पत्तो को प्यार से सहलाती हुई,
कभी धीमे से चेहरे को छूती, कभी निकलती खिलखिलाती हुई,
परदेस में स्वदेसी को कुछ याद दिलाती हुई,
मेरे गर्भ में बसा, संसार ये अलबेला,
मनुष्य के आकार में ढलता, विचित्र सा एक मेला है,
धर्म, अधर्म कुछ नहीं, यह तो मन्न की माया है,
इन्द्रियों के आगे विवश, इंसान का अपना कौन है पराया है,
मैं हवा चंचल सी मदमस्त बल खाती हुई,
न ठहरी कभी, ये दुनिया मरती चली गयी,
सीने में लाखों-करोड़ों राज़ दबाये लहराती हूँ,
कभी नम होती आँखों से मुस्कुराती हूँ,
धरती के अगम्य मार्गों पर भी है मेरा निवास,
मैं ही हूँ जीवन की धरा मैं ही हूँ श्वास,
सब देखती हूँ मैं, तुम्हारे हर कर्म को,
नरभक्षियों की क्रूरता, माँ के मर्म को,
मैं हवा चंचल सी मदमस्त बल खाती हूँ,
मैं भी माँ हूँ, कपूतों के प्रेम में रहती हूँ,
क्रोध के आंधी से कभी प्राण भी हरती हूँ,
पर बच्चों की पीढ़ा से पहेल खुद मरती हूँ,
कब की मर गयी होती मैं, न होता जो प्यार,
मुझ को समां लेता खुद में घृणा का अन्धकार,
एक टिमटिमाते दीपक की किरणें, भेन्धती उसके सीने को,
प्रेम में ही है प्रिय, सरल जीवन का सार,
मैं हवा चंचल सी, मदमस्त कविता लिखती हूँ,
मेरे शब्द गूंजते हैं, मैं न किसी को दिखती हूँ,
मेरे शब्दों से अपने ह्रदय को जगमगा लो,
अपने अन्दर की रात को, सवेरे में समां लो..