शाम आज फिर शांत थी ,
मन आज फिर भारी सा था I
दीप की लौ भी तेज हो रही थी ,
अंत जो करीब थाI
दूर कहीं खड़े वृक्ष के,
पत्ते भी आज शांत थे I
वायु भी रूठ गई थी ,
और रास्ते भी आज वीरान थे I
बस्ती की दबी - दबी आवाज ,
कानो में चहलकदमी कर रही थी I
उपकरणिका जो तेज हो रही थी ,
मुझे खुद में डुबो रही थी I
शांत तो आज मै भी था ,
और मेरी दुनिया भी आज वीरान थी I
पर न तो मेरी कलम शांत थी ,
न मेरे पन्ने वीरान थे I
और मेरी रचना भी शांति से ,
मुझे एकटक देख रही थी I
by KARUNESH KISHAN
Tags:
Sign In
to know Author
- Anonymous