मैं तुम्हारी ही ग़ज़ल हूँ मत अधूरी छोड़ देना ,
जिस सफे पे मैं लिखी हूँ वह सफा मत मोड़ देना ,
तुम ना आओगे तो कैसे पूर्ण होगी देह मेरी ,
भाव हैं संगीन धारी और मैं बिलकुल अकेली,
चाँद आँगन में उगा कर मत अँधेरा ओढ़ लेना ,
ना कोई मतला है मेरा ना कोई मकता है साथी ,
पृष्ठ हूँ चाहे पराया ,हूँ मगर तेरी ही थाती
काफिया गर मिल ना पाए नाम अपना जोड़ देना ,
काफिये से दूर लेकिन हाशिये के पास हूँ मैं ,
अक्षरों के बोध ढोती कागजों पर ही रही हूँ ,
तुम कलम मत तोड़ लेना .