"कशमकश की वो तीव्र लहरें,
मेरी नाँव की पाल पर अतीत की,
हार का वो हिलोरा अब भी तटस्थ,
मगर कदम जब पड़े सत्य के,
धरातल की भूमि पर तो पाया,
एक अथाह शून्य...
शून्य जहाँ फैली है एक खामोशी,
हवाओं के शोर में दबा सा एक क्रंदन,
रोजमर्रा की जिंदगी के शोर का,
जो चाहता है पैमानों को तोड़,
बाहर झाँकना, अनकही सुनाना मगर,
बेबसी है शायद, तो खामोश है...
मैं चल पड़ा इस शून्य पर,
कशमकश की लहरों को पीछे छोड़,
पाल के हिलोरों से कहीं दूर,
तो पायी ये पतली सी एक तंग गली,
देखा की शहर सो रहा है,
कई मकानों से पटा एक शहर...
साएँ साएँ सी हवा तो है मगर,
एक खामोश अनकही दबी सी है,
शायद शहर के हृदय की पीड़ा,
मेरे कदम ना रुके , ना रुकने की चाहत,
एक मोड़ पर खुली थी खिड़की तो झाँक लिया,
मैं हैरान तटस्थ, और शहर का भीषण अट्टहास...
शहर तो है मगर हर मकान में,
सिमटा खुद का एक शहर,
रहने वालों की हँसी या आँसू,
कारण हर मकान का अपना शहर,
तब जानी शहर की मायूसी, क्रंदन,
एक अनकही की थी वो भीषण अट्टहास...
मैं मुसाफिर चलता रहा,
शहर को पीछे छोड़,
एक नये तजुर्बे की तलाश,
मगर कानों पर अब भी,
शहर का अट्टहास तटस्थ, लग रहा,
मिलती हो मेरी अनकही भी शहर से..."