मन मेरे क्यूँ नहीं है तू
उस अबोध बालक सा।
क्यों नहीं तेरी आशाएं, इच्छाएँ
उस जैसी।
क्यों नहीं निष्पाप ही तू
उसकी तरह खेलता, बोलता
क्यों नहीं तू उसकी ही तरह सब से मिलता।
क्यों नहीं अब बिना जाने, बिना बूझे
तू आगे बढ़ता
क्यों अब बार बार तू
निष्कर्षों को तोलता।।
क्यों नहीं तू अब बादलों को देखकर
आकृतियाँ सोचकर खिलखिलाता।
क्यों नहीं आज भी तू नदियों में अपनी
नावों को टहलाता।
क्यों आज तुझे एक दरख़्त
मात्र जरिया ही दिखाई पड़ते।
क्यों आज तुझे कुएं के बोल
चीख से सुनाई पड़ते।
क्यों नहीं आज मिटटी के घर
तुझे महलों का सुख देते।
क्यों नहीं आज तेरे कपड़े
बेवजह मैले होते।
कहाँ गयी तेरी मुस्कान
कहाँ छोड़ आया तू उसे।
अकेला रह गया है तू
उसने तो देखे ऐसे कई मेले।
मन तेरी तुतली भाषा ही मुझे प्यारी थी
इस भोलेपन के आगे ही मेरी
कामनाएं हारी थी।
कितना सरल, कितना तरल
था वो मन
कितना कोमल फाये सा
तू भी तो ऐसा ही था
कई बरसों पहले
क्यों हो गए है आज तेरे
सारे रंग काले नीले।।
मन मेरे क्यूँ नहीं है तू....