वैसे एक बात तो मुझे याद है, कॉलेज में आज के दिन से महीनो पाहिले से लडके तैयारी करना शुरू कर देते थे। क्या पहनना है?किससे मांगना पड़ेगा कपडे?, कौन साला पैसे देगा,पिछली बार किसको किया था?, जिसको किया था उसके फ्रेंड कौन है और कौन लौंडा आज कल गर्ल्स हॉस्टल संभाल रहा है ?, कैसे करना है?, क्या कहना है?, अगर हाँ बोल तो कहाँ ले जाना है?, फिर खाना वन तो जो वो कहे खिलाना ही होगा।
फिर बात आती थी कंपटीटर कौन है? किस हाल का,फॅमिली का या ग्रुप का लौंडा है? अपने लौंडे छोड़े जाते थे कि पता करो की किससे बात करनी होगी। कुछ कंपटीटर बात से ही मान जाते थे या कहूँ तो बात से ही फट जाती थी और कुछ बात होते देख के ही शांत हो जाते थे उसी प्रकार जैसे बचपन मैं बाप पेलते तो बड़े भाई को थे, पढने के लिए और पढने आप स्वयं बैठ जाया करते थे। इसके बाद ले दे के इक्का दुक्का कुछ बेशरम या 'जिम्मांडू' अर्थात जिम जाने वाले लड़को के सखा(असल अर्थ तो आप स्वयं समझदार हैं,समझ ही गए होंगे,भावार्थ यही है) टाइप बच जाते थे।
अब शुरू होता था नर का मादा के लिए संघर्ष। ऐसा नहीं था की मादा इस बात से अनभिज्ञ होती थी की उसके तुरीण में कितने और किस किस सूविधाओं से लैस बाण है। जो उसके पीछे बढे चले आ रहें हैं चाहे वो चाहे या न चाहे। हाँ गर्ल हॉस्टल मैं वही उसकी पहचान थी। लेकिन मादा हमेशा दूर से गांधारी टाइप इस संघर्ष के चमोत्कर्ष का इंतज़ार करती थी या फिर एक साला ज़ुरूर होता था, जो विभीषण होता था।
ये विभीषण भी दो प्रकार के थे एक वो जो पिछले कुछ सालों मैं इसी प्रकार के संघर्ष में सफल होकर, अब सुखालिंगन कर रहे होते थे या वो जिन्होंने पहले ही संघर्ष का रास्ता त्याग दिया था। ऐसे विभीषण के माध्यम से अपने बाणों के विषय में विजय या पराजय सच कहूँ तो यहाँ तक की तैयारियों(उप्रोक्क्त व्यक्त बातचीत) का जायजा लेती रही थी।
इस प्रकार के कई संघर्षो में मैंने पेले जाने वाले कई लौंडो की बाइक से चाभी खींची है और एक ही डायलाग हर बार मर है कि 'बेटा बहुत उड़ लिया चल हेलीकाप्टर साइड में लगा,पापा बात करेंगे।' और इस प्रकार अंत में इस संघर्ष से निकले विजयी लौंडे को आज का दिन नसीब होता था। हम लोगों को हॉस्टल में रात में सारा समाचार बुढऊ के साथ बैठ के दिया जाता था।
लेकिन ऐसा नहीं था की मैदान में अब भी एक 'संघर्ष विजयी' नर ही बचा रह जाता था कोई न कोई किसी दूसरे शहर का, कॉलेज का, मौसी या मामी का साला वाला होता ही था जो की फर्स्ट डाउन उतरता था,प्रेम निवेदन का खेल खेलता था। जिसकी खबर रात को मिलती थी उसी प्रकार जैसे भीष्म पितामह को वाणों की सैय्या पर बैठाने के उपरान्त स्वयं पार्थ जाते हैं क्षमा याचना करने और दिन भर का हाल बताने।
अंत मैं आज की सुहानी सी दोपहर मैं किसी अनजान सी लैब या पार्किंग के कोने या किसी एकांत जिनका चुनाव महीनों पहले ही हो गया था पर नर मादा के समक्ष अपना प्रेम निवेदन करता है। पहले तो मादा सब आराम से बैठके लुफ्त लेती है, हॉस्टल के किसी कमीने लड़के की बुराई बतियाती है।अब कुछ तो करना पड़ेगा न,इतनी जल्दी हॉस्टल लौट गयी तो वहां के प्रश्नों की बौछार कैसे सहेगी।
चलते चलते नर को उसके कॉलेज धर्मं की उसी प्रकार याद दिलाती है जिस प्रकार मनमोहन सिंह कोलीसन धरमा की याद दिलाते हैं। उस बेचारे को भी नहीं पता था की आज तक जो वो कॉलेज में कर रहा था असल में उसके गरीब माँ बाप ने उसे ये करने कॉलेज नहीं भेजा था। और इतना कह के मादा अपना एक और 'अच्छा दोस्त' कॉलेज में प्रस्थापित कर लेती है।
इस प्रकार नर मादा के बीच क्षद्म संघर्ष तो समाप्त हो जाता है लेकिन बेचारा नर निराश हॉस्टल की और बढ़ता है और वंहा पहुंचते ही वंहा के परजीवी उसकी कह के ले लेते हैं अगले दो तीन सालों तक बेचारा और यहाँ तक की आज भी बुढऊ के चरणामृत के बाद उनकी ली जाती है। और वो आजीवन यहाँ तक की अपनी शादी के दिन भी देता रहता है और परजीवी लेते रहते हैं।