श्रणभंगुर ये जीवन चक्र,
मोह माया का एक जंजाल,
खुद की खुदी कहीं लापता,
कहाँ मोहब्बत कहाँ रक्श ही है,
निर्वस्त्र पैदा हुए एक रोज,
निर्वस्त्र ही उठ जाएँगे एक रोज,
फिर भी अर्थ का फितूर क्यों सवार ?
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- KUNAL BABA