इंसान को कभी-कभी चशमा उतार कर भी संसार देखना चाहिये | थोड़ा कम ही दिखे वो सही है लेकिन इंसान को अपना हद पता रहता है | देखिये न अभी अभी न जाने “तुमने ऐसा क्यों बोला” इस शब्द से पाला पर गया | अमूनन ऐसा तो मिडिल क्लास फैमिली में ही होता देखा था मैंने और उसी कारण तो चुपचाप दुरी बना ली थी | खैर “ अ “ से अनार बुआ, नानी, ताई, मामी तक पहुँचते-पहुँचते “ आ “ से आम न होकर, “ ऊ “ से उल्लू बन जाया करती और फिर बिना मतलब का बबाल होता जिससे आपका कोई लेना देना नहीं |
तो आते है डायरेक्टली पॉइंट पर | ऐसा मैंने सपनो में भी नहीं सोचा था कि मेरे द्वारा कुछ हलके अंदाज में बोला गया “ न “ बबाल का जड़ बन जायेगा | किसी ने यूँ ही उड़ती नजरों से पूछ लिया था कि फलां से बातचीत होती है | मैंने भी उसी टोन में जबाब दे दिया था ” न “ ! और आज प्रशन उठ गया तुमने “ न “ क्यों बोला ? अरे ऐसे तो हम बोलते ही रहते हैं, इसमें कौन सी बड़ी बात हो गयी | पता नहीं कितनी बार हम यूँ ही किसी बात को टालने के लिये जानते समझते हुये ” न “ बोल दिया करते हैं | लेकिन ये “ न “ न साला कुछ अलग ही निकल आया रे बाबा | काश पता होता इतना सुनना पड़ेगा तो उसके पूछने से पहले ही “ हाँ “ बोल दिया होता |
खैर चशमा उतारने को इसीलिए कहा था कि कभी-कभी हम भी हर घटना को अपने चश्मे से देखने के आदी हो जाते हैं | और फिर बिना कारण बबाल हो जाता है | यहाँ मैं मर्द हो गया और मेरा “ न “ कहना जेंडर बायस्ड हो गया था, चुकीं दूसरा पक्ष एक औरत का था तो पल भर के लिये मैं भी सोच में पर गया | क्या मैंने जेंडर को धयान में रख “ न “ बोला था | जब काफी माथा पच्ची के बाद इस निष्कर्ष पर पहुँचा की वहाँ मेरे “ न “ बोलने से जेंडर का कोई लेना देना नहीं था तो मन कुछ हल्का सा हुआ | लेकिन सबक तो मिल ही गया था !!!
कितना अच्छा समस्तीपुर के शांत से एक कोठरी में बैठा चिंतन मनन कर रहा था कि एक फ़ोन कॉल ने पूरी चैन छिन ली | बताइये अब रात में नींद नहीं आयेगा, करबटें बदलता रहूँगा तब | तब वो आ कर देखेगी क्या ? लेकिन मैं तो कह ही सकता हूँ न की तेरे “ न “ के आर्गुमेंट के चक्कर में मेरा रात का नीद गायब हो गया | फिर भी अगले कॉल पर मैं थोड़े न सुनाऊंगा | सुनने की जो आदत पड़ गयी है |