कभी गिरा दिए किसी राहगीर ने दो बीज,

साथ में लुढ़कते हुए, अठखेलियाँ करते हुए

पड़े रहे एक छुपे कोने में, भींझने के इंतजार में

एक अंकुरित हुआ तो उसने दूसरे को आवाज़ दी

साथ में बढ़ते हुए, एक दूसरे का सहारा

एक दूसरे का बढ़ावा बनते हुए

 

कई बरस देखे थे उन्होंने, कई आते जाते लोग

टहनियों को शाखाएँ बनते देखा था

चाह के भी एक जैसै न बढ़ पाए थे

एक दाईं ओर ज्यादा फैल गया था

पूछा, तो बोला बारिश ही ऐसी हुई

मौसमों के साथ एक दूसरे को बदलते हुए

 

कुछ शाखाएँ जा मिली एक दूसरे से

वहाँ खिली कुछ कलियाँ, कुछ फूल बरसे

अब तक तो जगह बहुत थी विस्तृत होने को

ऊपर एक खुला आसमान, नीचे जड़ें फैलाने को जमीन

द्वंद होता तो कोई झुक जाता, दूसरी ओर मुड़ जाता

देखते रहे ऐसे ही एक दूसरे के रंग खिलते हुए

 

धूप-छाँव का खेल खेलते दोनो मिट्टी पर

बयार की धुन पे अपनी शाखाएँ नचाते

खेल-खेल में टकराते तो कुछ पत्ते झड़ते

कुछ टहनियों ने एक दूसरे को जकड़ रखा था

कुछ गिलहरियाँ साथ पाली, कुछ घोंसले अलग

मुड़ती कम थी टहनियाँ अब जो कठोर हुई

 

चिड़ियों की खटपट के साथ उनकी भी होती झड़प

गिलहरियाँ एक से दूसरे पेड़ जैसे मनाने को भागती

पत्ते और फूल जितने घुले मिले थे, जड़ें उतनी ही दूर

तनिक झुलस गए थे पिछले बरस गिरी बिजली से

करने लगे झुलसे हिस्सों को समेटने की कोशिश

अनजाने में ही अपनी कमियां छुपाते हुए

 

अब गया वहां तो दो ठूंठ नजर आए

अलग थलग पड़ी जड़ें, कुछ उजड़े घोंसले

पूछने पर बोले, आंधी आई, झुके नहीं हम

मुड़े नही हम, समर्पण का डर बैठ गया था

पत्तियाँ झिलमिलाते रहें, फूल खिलाते रहें

अपनी जड़े एक दूसरे से बचाते हुए

 

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