आज आजादी का सत्तर साल होने को है | हम खुद से प्रशन करतें हैं कि मिथिला का विकास क्यों नहीं हुआ और फिर चादर तान पलायन के दंश को झेलते रहते हैं | साल दर साल से यही कहानी दोहराई जाती रही है और हम अपनी मज़बूरी को छिपा दर दर को ठोकरें खाते हुए अपने किस्मत को दोष देते रहते हैं |
प्रशन ये है कि क्या हमारी वर्तमान विपन्नता सत्ता के द्वारा हम पर थोपी नहीं गई है ? और सत्ता के इस निति के खिलाफ हम खड़े क्यों नहीं हो रहें हैं ? हम क्यों नहीं लड़ रहें हैं ? तकरार क्यों नहीं होती सत्ता के इस दोगली निति के खिलाफ हमारी ? हमारी लहु सर्द क्यों हो गयी है ? हम क्यों थक हार बैठ गयें हैं ? हम कुछ बोलतें क्यों नहीं हैं ? हमें बैठे बैठे किसी का मुहं ताकने की आदत हो गयी है, हम अपने तारनहार के उम्मीद में खोएँ रहते हैं, साल दर साल समय यूँ ही बीतता रहता है और बदलाव के सुनहरी सपनों को बुनते रहतें हैं |
और कब तक सहेंगे ये सब ? क्या तब तक जब हमें पूरी देश में सस्ते मजदूरों के सप्लायर के रूप में देखे जाने लगेंगे | विकास के इस दौर में हमारी विरासत, संस्कृती, समाज सब खत्म हो जाएगी और हम अनाथ के भातीं भटकते हुए अपने खोएँ अतीत को दूंढते रहेंगे | वर्तमान में हमारी स्थिति ऐसी ही हो गयी है कि हम अपने अस्तित्व के खत्म हो जाने का इंतज़ार कर रहें हैं | गूंगे बहरे के भातीं हम कानों में तेल डाले सोयें हुए हैं, किसी भी तरफ से विरोध का एक शब्द तक नहीं कहा जा रहा है और भविष्य पूर्ण रूप से अन्धकारमय दिख रहा है |
तो चलिये एक बार फिर हम आगे बढ़ते हैं, एक क्रांति का आगाज करतें हैं, एक नई शुरुवात की लकीर खीचतें हैं, बदलाव की चाह में अपनी तक़दीर को बदलने के लिये, अपने वर्तमान और भविष्य को उज्वल बनाने के लिये, अपने सोये हुये जमीर को जगाने के लिय, फिर से एक क्रांति का बिगुल फुकतें हैं, अपने खोई अतीत को फिर से अपने भविष्य में लाने के लिए |
होगी क्रांति, जरुर होगी, बदलाव भी आयेगा, नया सवेरा भी आयेगा और विकास की परिकल्पना भी जमीन पर उतरेगा | लेकिन इन सब के लिये हमें लगाना पड़ेगा, संघर्ष करना पड़ेगा, अपने आप को झोंकना पड़ेगा, अपने आप को तैयार करना पड़ेगा, अपने तन मन को लगाना पड़ेगा, अपना सुख चैन को खोना पड़ेगा और भागना पड़ेगा, स्वर्णिम भविष्य के तलाश में ! आज मिथिला इंतजार कर रहा हैं अपने तारणहार का, तो उठिये और संघर्ष का आगाज करीये | एक दिन विकास का सवेरा जरुर होगा | और हाँ यहाँ मुझे एक गीत याद आ रहा है “ साथी हाथ बढ़ाना, एक अकेला थक जायेगा ” तो इस संघर्ष को थकने नहीं देना है, हाथ बढ़ाना हैं बदलाव के लिये |