अगर आप मिथिला आन्दोलन के दिवालियापन ओर खोखलेपन के तह में जायेगें , तो काफी कुछ पता चलेगा | काफी वाद-विवाद रहा है कि, क्यों मिथिला के विकास का आन्दोलन को सफलता नहीं मिली और अगर आप एक निष्पक्ष अवलोकन करते हैं इसके पीछे बस एक कारण मिलता है, कि आज तक कोई भी आन्दोलन मिथिला के लोगों का समर्थन जुटाने में सफल नहीं हुआ है | जी हाँ पिछले 60 सालो की यही कहानी है !
एक तो हमेशा से इन आंदोलनों में ब्रह्मणों का पर्भुत्व रहा है जिनकी आबादी 8% के करीब है | बांकी 92% मिथिला वासी इसमें कभी दिल से शामिल नहीं हुये | दुसरा हमारी जाती प्रथा हमारे तथाकथित आंदोलनकारियों के दिमाग से आज तक नहीं निकल पाया “ रस्सी जल गयी - बल नहीं गया “, वाली बात कहावत को चरितार्थ करती रहती है | “ मैं “ भावना ने कभी “ हम “ को आगे नहीं बढ़ने दिया ओर हर नये संगठन और आन्दोलन की “ लिमिटेशन “ को ये पहले ही तय कर देती है |
ऐसा नहीं हैं हम इन बातो को नहीं जानते लेकिन आज तक का इतिहास रहा है कि किसी ने इस के खिलाफ आवाज उठाने कि हिम्मत और चेष्टा नहीं की ! जब आप सम्पूर्ण मिथिला की बात करते है तो ये प्रश्न उठना लाजमी है |
मिथिला क्षेत्र में 20% के आसपास मुस्लमान है और हमने आज तक एक मुस्लिम का पोस्ट मिथिला आंदोलन के समर्थन में नहीं देखा | 40% पिछड़ा वर्ग 20% हरिजन अपने आप को इस आंदोलन से कभी नहीं जोड़ पायें | तो पिछले 60 सालों में हमने इन 90% लोगों को छाँटकर आन्दोलन का एक फैंन्सी सपना देखा है | “ साथ बैठ कर तय कर लीजिये की इस सपने को हकीकत में जमीन पर उतारना है, या इसी तरह हवाबाजी करनी है “ | और अगर सही मायने में आंदोलन करना है तो सबको साथ लेकर चलना पड़ेगा, सबको जगह देना पड़ेगा, “ जी हाँ जिसकी जितनी भागीदारी उसकी उतनी हिस्सेदारी ”