मैंने सोचा पूछु एक दिन,
अन्दर के अंधेरो को चीर के,
वो क्या है जो दिखाई नहीं देती,
वो क्या है जो सिर्फ महसूस होती,
लौ की भाँती जलती जाती,
पानी सी वो बहती जाती,
हवाओं में सम्मिलित है,
पर हवाओं से वो भिन्न है।
मैंने सोचा पूछु एक दिन,
अन्दर के साहस को बटोर के,
ये कौन सी शक्ति है,
जो मेरी है तो नाजुक है,
जो मेरी है तो भावुक है,
जो अलग हुई तो बलवान है,
जो मेरी नहीं तो अनजान है।
मैंने सोचा पूछु एक दिन,
अन्दर की शंकाएं जोड़ के,
ये कौन सी शंका है,
जो सोचो तो डरावनी है,
जो समझो तो कहानी है।
जब सोचा उसको तो हिम्मत लगी,
जब समझा उसको तो अपनी लगी।
जोड़ा जब इन अर्थों को,
तोडा जब इन संधियों को,
तो पाया जो ना सच के जैसा था,
जो ना झूठ से परे था.
कुछ अजीब, कुछ सजीव,
वो बिलकुल मेरे जैसा था.
वो उत्तर तो बस एक प्रश्न मात्र था,
वो प्रश्न सिफर मात्र था।
वो कुछ मेरे ही जैसा था,
प्रश्नों की गुत्थी में उलझा उत्तर,
हू -बहु मेरे जैसा था………..