राजनंदगाँव रेलवे स्टेशन छतीसगढ़ से ...
छोटा शहर नहीं बदला | हम बदल गये | हम तेज भागने के आदी हो गए और हमारा अपना शहर, अपना गाँव सब पीछे छुट गया | सब बदलाव के गर्त में समा गया और फिर अपना गाँव, क़स्बा, अपनी संस्कृति, अपनी विरासत, सबको हिराकत भड़ी नजरो से हम देखने लगे | ये बदलाव हम में आया | हम रेस में आगे भागने लगे और पूरी बचपन की यादें पीछे रह गयी |
वह एहसास न जाने कहाँ खो सा गया है | उस अनजाने शहर से मेरा कोई नाता रिश्ता नहीं था | पहली बार उस शहर में कदम रखा था लेकिन कदम रखते ही जुराव सा महसुस होने लगा | छोटे से प्लेटफ़ॉर्म से बाहर निकलते ही हम अपने पुराने जिंदिगी की गहराईयों में गोते लगाने लगे | सुबह सुबह का समय और जाना पहचाना हुआ जीवन के जीवंत रूप को देखना एक सुखद ऐहसास के तरह था | सूरज की पहली किरण और गुलाबी ठण्ड ने पूरा मौसम में एक अजूबा रोमांस भर रखा था |
रेलवे ब्रीज से उतरने के क्रम में सामने एक स्कूटर आती दिख गयी | एक अधेर उम्र के पिता अपने बेटी को लेकर धीमे धीमे स्टेशन के तरफ बढ़ रहे थे और बेटी के हाथो में फैंसी सा सूटकेस बता रहा था कि आने वाली ट्रेन उसे अपने पिता से दूर लेकर चली जाएगी और स्कूटर की धीमी दुनिया पीछे छुट जायेगा | सहसा ऐहसास हुआ की सब कुछ हमारे आगे पीछे बदल सा तो नहीं गया है | वो स्कूटर पर चढने का बचपन वाला एहसास फिर से दिमाग के कोने में एक हलचल सा मचाने लगा | वो धीमा धीमा स्कूटर का चलना जैसे लगता था पीछे पीछे पूरी दुनिया चल रही है | फिर लगा की बदल तो हम ही गए हैं, वो छोटी सी दुनिया जहाँ थी वहीँ है और हम बढ़ चले |