सन 1989 की नवरात्रि और दिवाली के बीच में हमारे कॉलेज का आल इंडिया टूर (भारत भ्रमण) का प्रोग्राम बना. इसका अनुमानित खर्च था प्रति छात्र 1500 रूपये, जो कि उस जमाने के बहुत बड़ी रकम हुआ करती थी. घर से साफ़ मना कर दिया गया. अब छात्र प्रतिनिधि होने के नाते मेरे लिए ये प्रतिष्ठा का प्रश्न था. मैंने घर में बहुत मिन्नतें की, बहुत खुशामद की लेकिन सब कुछ व्यर्थ. अंत में गांधी जी ने मेरी मदद की. मैंने उनका रास्ता अपनाया और भूख हड़ताल की. शाम तक ही सरकार हिल गयी और 1500 रुपये का बजट पास हो गया. राजीव शर्मा और प्रदीप गोयल ने दिल्ली जाकर 70 छात्रो और तीन अध्यापको का राउंड टिकट बनवाया और यात्रा के सबसे पहले टुकड़े, जो की दिल्ली से हैदराबाद था, का आरक्षण भी करवा लिया. ये बात अलग है कि उन्होंने आरक्षण के लिए जो प्रति टिकट दो रुपया रिश्वत देने की बात बतायी उस पर ज्यादाटार लोगो ने भरोसा नहीं किया और सब का मानना था कि वो 140 रूपये उन्होंने दिल्ली यात्रा में खा पी कर उड़ा दिए थे.
हमारी यात्रा का कार्यक्रम दिल्ली से हैदराबाद, बेंगलोर, मैसूर, गोवा, मुंबई, जयपुर होकर वापस दिल्ली आने का था. अगर मैं पूरी यात्रा के बारे में लिखने लगू तो शायद एक उपन्यास हो जाएगा लेकिन आज मेरा एक खास घटना आपसे साझा करने का मन है.
हमारी यात्रा का तीसरा पड़ाव था मैसूर. हमारा दुर्भाग्य ये था कि ठीक इसी रूट पर हमसे पहले मेरठ के डी एन पॉलिटेक्निक का एक ग्रुप चल रहा था. वो लोग जहाँ भी जिस भी लोज या धर्मशाला में रुकते वहां से जाते हुए उसके पंखो की पंखुड़िया मोड़ देना, बल्ब या ट्यूबलाइट फोड़ देना, स्विच बोर्ड में शोर्ट सर्किट कर देना आदि आदि इनके शौक थे. जब हम लोज या धर्मशाला ढूँढने निकलते तो मेरठ का नाम सुनते ही हमें कोई भी जगह देने को राजी नहीं होता था. खैर किसी तरह रहने की जगह मिली.
मैसूर में हमने वृन्दावन गार्डन, चामुंडा हिल, महाराजा मैन पैलेस, आदि आदि देखे और दो दिन मैसूर में रुकने के बाद हमारा गोवा जाने का प्रोग्राम था. ट्रेन शायद दोपहर एक बजे के आसपास की थी लेकिन हमें और कोई काम नहीं था तो हम नौ-दस बजे ही रेलवे स्टेशन पहुँच गए. जाहिर सी बात है कि ट्रेन प्लेटफार्म पर नहीं थी. लड़को ने इधर-उधर पता किया तो पता चला कि ट्रेन लोको शेड में थी और तैयार हो रही थी. कुछ अति उत्साही लोग वही पर पहुँच गए और किसी तरह एक डब्बे का एक दरवाजा खोलने में सफल हो गए. बाकी तीनो दरवाजे अन्दर से बन्द थे. इस ग्रुप में 10 से 12 बाहर लोग थे. इनमे बाहुबली और बुद्धिबलि दोनों ही तरह के लोग शामिल थे. ये ग्रुप डिब्बे के बीच के केबिन में था और आस-पास के केबिन में और बाकी लड़के आ गए थे. हम लोगो ने अपना सामान वगैरह ठीक से जमा लिया था पूरे डिब्बे पर हमारा आधिपत्य था. हम बहुत खुश थे कि बिना किसी रिजर्वेशन के भी हमें बहुत बढ़िया सीट मिल गयी और पूरे डिब्बे पर हमारा राज था.
जब एक-दो घंटे बाद ट्रेन प्लेटफार्म पर आयी तो उसमे स्थानीय कुली चढ़े और उन्होंने हमें डिब्बा खाली करने को कहा. दरअसल कुली जनरल डिब्बे की सीट पैसा लेकर बेचते थे और उनकी मर्जी के बिना हमारा डिब्बे में बैठना उन्हें स्वीकार नहीं था. मजे की बात ये थी कि उनके और हमारे बीच में कोई सम्पर्क भाषा थी ही नहीं. वो अपनी कन्नड़ में कुछ कहते थे और हाथो से हमें उठने का इशारा करते थे. हमारे लोग भी जवाब में हिंदी में कुछ भी कह देते थे और उठने से मना कर देते थे. इस थोड़ी देर के सांकेतिक वार्तालाप के बाद उनका क्रोध बढ़ता जा रहा था और उन्होंने एक लड़के को जबरदस्ती उठाने की कोशिश की. बस फिर क्या था कुली दो-तीन थे और हम आठ-दस; अवज्ञा आन्दोलन तुरन्त ही युद्ध में बदल गया और ईमानदारी से कहूं तो हमने उन कुलियों को अच्छे से मारा. हमने उन्हें पीट-पीट कर डिब्बे से बाहर धक्का दे दिया. डिब्बे के तीन दरवाजे बन्द थे और एक खुला. बाहर जाकर उन्होंने अपने और साथियो को इकट्ठा किया और फिर से हमला किया. जैसा कि आप भारतीय ट्रेन की बनावट जानते ही है कि केबिन और साइड सीट के बीच में पतली सी गली होती है चलने के लिए. लोग कितने भी हो लेकिन एक वक्त में सामने केवल एक या दो लोग ही आ सकते हैं. सामने वो ही होता था जिसका सचमुच सबसे पहले झगडा हुआ था और उसके सपोर्टर पीछे. यहाँ हमने पूरा मोर्चा संभाला हुआ था दो साइड वाली सीटो पर, दो केबिन वाली सीटो पर और इसी तरह चार लोग ऊपर. जैसे ही उनका आदमी आगे आता था उसके ऊपर एक साथ कम से कम 4-6 हाथ पड़ते थे. कोई मुक्का मारता था कोई लात और एक-दो लोगो ने तो मैसूर से दो-तीन फुट के रूल (छोटे डंडे) खरीदे थे, उनसे प्रहार करते थे. वो आदमी इस अप्रत्याशित हमले से बिलबिला कर वापस पीछे भागता, स्टेशन पर और शोर मचता, उनकी संख्या और बढ़ जाती, फिर से हमला होता और फिर से उन्हें मुंह की खानी पड़ती. ऐसा दो-तीन बार हुआ होगा. स्टेशन पर उनकी संख्या और आक्रोश बढ़ता ही जा रहा था. वो लोग सरिये, बेलचे और रॉड से लेस थे. अब उनमे सिर्फ कुली ही नहीं थे वर्कशॉप वाले, लोकोशेड वाले और पता नहीं कौन कौन. अब ये युद्ध उत्तर बनाम दक्षिण, रेलवे कर्मचारी बनाम छात्र, स्थानीय बनाम बाहरी हो चुका था. और फिर वो क्षण आया जब उन्होंने किसी तरह से डिब्बे के दोनों तरफ के दरवाजे खोल लिए. अब हमला दोनो तरफ से हो चुका था और मुझे अपना भविष्य साफ़ नज़र आ रहा था. डिब्बे में भगदड़ जैसी मच चुकी थी.
मैं लोगो की भीड़ को चीरते हुए, लोगो के पैरो के बीच में अपना सर घुसाते हुए डिब्बे से बाहर भागा. मैं बचपन से ही दुबला-पतला और चेहरे से शरीफ दिखने वाले बच्चो में था. दूसरी बात मेरा इस लड़ाई में कोई प्रत्यक्ष योगदान नहीं था, क्योंकि मैं बाहुबली नहीं बुद्धिबली माना जाता था. तीसरा लड़ाई के समय मैं डिब्बे के अन्दर की तरफ था तो उन लोगो की निगाह में नहीं था. मैं बाहर निकल कर एक फल और जूस वाले की दूकान के पास खड़ा हुआ. मैंने उस से पूछा डू यू नो हिन्दी? उनसे ना में सिर हिला दिया. मैंने पूछा दो यू नो इंग्लिश उसने फिर ना में सिर हिला दिया. मुझे समझ नहीं आ रहा था कि मैं क्या करू? कहाँ जाऊँ?
पूरे स्टेशन पर ऐसा माहौल था जैसे किसी गाँव पर डाकुओ ने हमला कर दिया हो या मुंबई के ताज होटल पर आतंकवादियों का हमला हो गया हो. ना उन्हें हिंदी आती थी और ना हमें कन्नड़ इसलिए इस एक्शन फिल्म में डायलाग नहीं थे सिर्फ एक्शन था. किसी सुलह-सफाई या बीच-बचाव की तो कोई गुंजाईश ही नहीं थी. वो ढूंढ-ढूंढ के एक-एक लडके को पीट रहे थे. जो भी उन्हें उत्तर भारतीय और हमारे आयु वर्ग का लगता था वो उसे बिना कोई बात किये या सफाई का मौका दिए सीधे मारते थे. हम लोग 70 थे और वो लगभग 150-200. हमारे ग्रुप में 20 से 22 साल के पढ़ने वाले बच्चे थे और उनके ग्रुप में मेहनत-मजदूरी करने वाले पूर्ण वयस्क पुरुष. वो लोग ज्यादा थे इसलिए कई जगहों पर तो एक-एक लड़के को कई लोग मिल कर मार रहे थे. वो एक घेरे में खड़े हो जाते थे और फ़ुटबाल खेलते थे. मतलब एक आदमी एक लडके को एक मुक्का मारेगा और फिर उसे दूसरे आदमी की तरफ धक्का दे देगा, अब ये आदमी इस लड़के को मारेगा और बाल अगले खिलाड़ी को पास कर देगा. भगवान का शुक्र था कि ये लोग हमें लात और घूसों से ही मार रहे थे और साथ लाये हथियारों का उपयोग नहीं कर रहे थे.
सामान का तो किसे होश था लोग अपनी जान बचाने के लिए भाग रहे थे. उन्होंने हमारा सारा सामान उठा कर डिब्बे से बाहर फेंक दिया था. हमारा सामान पूरे प्लेटफार्म और पटरियों पर बिखरा पड़ा था. कई लोगो के सूटकेस और अटैचियाँ टूट कर खुले पड़े थे. कोई जान बचाने के लिए स्टेशन से बाहर शहर में भाग गया था, कोई स्त्रियों के शौचालय में घुस गया था, कोई कन्नड़ अखबार लेकर पढ़ने का नाटक कर रहा था. जिसे जहाँ भी जगह मिली वो वहां भाग या छुप रहा था. अब ये लड़ाई नहीं थी सिर्फ पिटाई थी, क्योंकि लड़ाई तो दो तरफ से होती है जबकि ये एक्शन सिर्फ एक तरफ़ा था. वास्तव में झगडा करने वाले और कुलियों को मारने वाले 8 से 10 बाहुबली थे लेकिन उनकी वीरता का पुरस्कार हम सभी लोग मिल कर सामूहिक रूप से गृहण कर रहे थे. मतलब गेंहू कम थे और धुन ज्यादा लेकिन सब की महीन पिसाई हो रही थी.
एक छ: फुट लम्बे, एक दम काले, बड़ी-बड़ी रावण शैली की मूँछो के स्वामी ने मेरा गिरेबान पकड़ लिया. ये व्यक्ति दक्षिण भारतीय फिल्मो के खलनायक से हूबहू मिलता-जुलता था. इसने नीली जींस और काले रंग की चमड़े की जैकेट पहनी हुयी थी. उसकी आँखे गोल-गोल और थोडा सा आगे को निकली हुयी थी. कुल मिला कर ये एक बेहद राक्षसी और भयावह व्यक्तित्व का स्वामी था. लेकिन ये आदमी मुझे मार नहीं रहा था बल्कि इसने अपने दायें हाथ से मुझे गिरेबान से किसी खिलौने की तरह पकड़ा हुया था और बाएं हाथ से ये और लोगो को बुला रहा था साथ ही जोर-जोर से कन्नड़ में कुछ कह रहा था; कुकडू-कुकडू-कुकडू, कुकडू-कुकडू-कुकड़ू....... जैसे ही मुझे उसकी फ़ुटबाल खेलने की मंशा समझ में आयी मेरी रूह काँप गयी. मैंने अपने दोनों हाथो से, अपनी पूरी ताकत उसके एक हाथ पर लगा रखी थी, जिसमे उसने लोहे का एक मोटा सा कड़ा पहना हुया था और मन-मन ही मैं सारे देवी-देवताओं का आव्हान कर रहा था. पता नहीं तैंतीस करोड़ में से कितनो तक मेरी आवाज पहुँची और कितनो ने उस पर कार्यवाही की लेकिन किसी तरह से मेरा गिरेबान उसकी टीम के आने से पहले ही उसके हाथ से छूट गया. मैं पूरी ताकत लगा कर भागा और भागते-भागते सबसे पहले मैंने अपनी काले रंग की जैकेट उतारी, ताकि पहचान छुपाई जा सके. वो लोग मेरे पीछे नहीं भागे क्योंकि उन्हें खेलने के लिए गेंदों की कोई कमी नहीं थी. जैकेट के नीचे मैंने टी शर्ट पहनी हुयी थी और अब मैं निहायत पतला-दुबला छोटा सा बच्चा लग रहा था. अब मुझे कोई खतरा नहीं था क्योंकि अब मैं उस ग्रुप का हिस्सा लग ही नहीं रहा था. अब मैं मजे में घूम-घूम कर सब की पिटाई देख रहा था. कुछ लोगो ने अपने बचाव की प्रार्थना भी मुझसे की जिन्हें मैंने पहचानने का खतरा मोल लेना कतई जरूरी नहीं समझा. अगर मैं उन्हें पहचानता तो आप समझ सकते हैं कि मेरा क्या होता.
सूचना मिली कि एक गुरुदेव एन सी जैन जी प्लेटफ़ोर्म पर ही लेट गए हैं और उनका बी पी बढ़ गया है तथा ह्रदयाघात होने की पूरी सम्भावना है (ऐसा उन्होंने स्वयं छात्रो को बताया). दूसरे गुरुदेव टी पी सिंह जी अदृश्य हो गए थे और तीसरे श्री संजीव भाटी किसी तरह भाग कर रेलवे पुलिस स्टेशन पहुंचे. पुलिस आ गयी, छात्रो को कुलियों से बचाया गया और हम सब को एक जगह जमीन पर बिठा कर सांकेतिक हिरासत में ले लिया गया. तीन चार पुलिस वाले हमारी निगरानी कर रहे थे. हमारे अध्यापको ने पुलिस स्टेशन में जाकर क्या किया ये तो इश्वर ही जानता है लेकिन हमें बताया गया कि वहां कुछ भेंट चढ़ा कर हमें छुडाया गया वरना सबको जेल हो जाती. वैसे इस बात पर अधिकाँश छात्रो ने विश्वास नहीं किया. वो ही कुली और स्थानीय कर्मचारी जिन्हें थोड़ी देर पहले हमने मारा था और फिर जिन्होंने हमें मारा था, हमारा एक-एक सामान ढूंढ-ढूंढ कर ला रहे थे. किसी भी लड़के का एक रुमाल तक भी गायब नहीं हुआ. ये ही घटना उत्तर प्रदेश या बिहार में हुयी होती शायद ही कोई सामान वापस मिलता. वो लोग भी बहती गंगा में हाथ धो डालते जिनका इस झगड़े से कोई लेना-देना भी नहीं होता.
शिवचरण की चर्चा के बिना ये संस्मरण अधूरा ही रहेगा. शिवचरण शामली के पास के किसी गाँव का था और आईएएस था. आईएएस मतलब इनविजिबल आफ्टर सनसेट अर्थात वो इतना काला था कि अँधेरा होने के बाद सिर्फ हंसने पर ही वो दिखाई देता था (दांतों की वजह से, क्योंकि दांत उसके सफ़ेद ही थे). जब हम लोग पुलिस हिरासत में बैठे हुए थे तब जिन लोगो की पिटाई हुयी थी उनके चहरे लटके हुए थे और मेरे जैसे लोग जो पिटने से बच गए थे वो मजे ले रहे थे. शिवचरण के काफी आहत स्वर में मुझसे पूछा:
“भाई तेरे नी लगे के?”
काश में उसकी आवाज की नक़ल उतार कर आपको दिखा सकता. क्या करे लेखन की अपनी सीमाए और बाध्यताये हैं. खैर.....
“भाई तेरे नी लगे के?”
“तझे दुःख होरा के अक मेरे नी लगे? तेरे जादा लग्गिये के”
“सालो ने मेरी छात्ती में गुट्टे ई गुट्टे बजा दिए. मझे लगा अक मेरे प्राण लिकड़ जांगे तो मैन्ने सिर आग्गे कर दिया, मका इसमें मार लो.”
मेरा हंसते-हंसते बुरा हाल हो गया. राजीव शर्मा और प्रदीप गोयल भी हंसने वालो में मेरे साथ थे क्योंकि वो भी पिटाई से बच गए थे.
कुल मिला कर ट्रेन लगभग दो घंटे लेट हुयी. जनरल का एक पूरा डिब्बा हमारे लिए आरक्षित किया गया जिसमे हमारे सिवाय किसी भी स्थानीय व्यक्ति को बैठने की अनुमति नहीं थी. उस डिब्बे में अगले तीन-चार स्टेशन तक चार पुलिस वालो की ड्यूटी भी लगाई गयी ताकि हमें फिर से कोई ना मारे. इस तरह आरक्षण ना होते हुए भी हम शाही शान से सुरक्षा सहित आरक्षित डिब्बे में यात्रा कर रहे थे.
और ट्रेन छुक-छुक करती हुयी चल पडी कर्नाटक के मैसूर से गोवा के वास्को-डी-गामा की ओर....
फिर किसी दिन बताऊंगा कि बडौत से इंडिया इंटरनेशनल ट्रेड फेयर देखने के लिए दिल्ली जाते हुए फिर से ट्रेन में कैसे लड़ाई हुयी और फिर से मैं कैसे बचा.
तब तक के लिए राम राम......