पहला केस - दरभंगा बिहार
हमने अपने जेब से पैसा लगाया, हम नौकरी से छुट्टी ले दरभंगा गए, हमने पुलिस की लाठियां खाई, हम उस चमरी जला देनी वाली धुप में एक सप्ताह तक दरभंगा के सडको पर भटकते रहें | पर्चे बाटतें रहें | हमारा मांग था कि दरभंगा के हवाईअड्डा को चलाया जाये | क्या हवाईअड्डा के चालु होने पर, हवाई यातायात के शुरुवात होने से हमें फायदा होता ? ईमानदारी से कहूँ तो हम में से कोई ऐसा नहीं था जो हवाई यात्रा करने में सक्षम हो | और जिन्हें जरुरत था वो सोये रहें | दुर बैठ निहारते रहें | एक भी व्यक्ति आगे निकल कर नहीं आये हमारी मदद करने को जिनको हमारे काम से फायदा होने वाला था |
अब प्रशन ये है कि हम ये फालतू का काम क्यों करें जब लोग साथ न दे ? या कहीं न कहीं ये हमारी ही विफलता ही थी जो हमें इन लोगों का साथ नहीं मिला |
दूसरा केस - बाडबानी मध्यप्रदेश
मनरेगा के लिए हम धरना देते हैं गाँव से लेकर दिल्ली तक, हम पुलिस की लाठियां खाते हैं, रात दिन प्रशाशन से हम लड़ते हैं और महल बिजनेस करने वाले का बनता है | इस सच्चाई से आप रूबरू होंगें जब आप किसी भी आदिवासी गाँवों के क़स्बे वाले मार्केट में जायेंगे | मनरेगा के चलने से गाँव के बाजार को काफी फायदा पहुंचा और सारे दुकान पक्के बन गए | दुकानदारो की कमाई में काफी हद तक सुधार हुआ लेकिन सिक्के के दुसरे पहलु को जब हम देखते हैं तो पता चलता है कि हमें इन दुकानदारों का समर्थन तो दूर की बात, हमें अपने क़स्बे में ही इनका विरोध का सामना करना पड़ता है |
अब हमारी ये विफलता है कि हमारे काम से सबसे अधिक दुकानदारो को फायदा पहुंचा, इस के बाबजूद हमें ये लोग अपने दुश्मन के तौर पर देखते हैं | हम अपनी बात कहीं न कहीं इनको समझाने में नाकामयाब रहें |
जगह अलग था, मुददे अलग और लोग भी अलग थें लेकिन दोनों जगह एक समानता देखने को मिला | हमारे काम से जिन लोगों को फायदा पहुँचता वो खुल कर साथ देने को तैयार नहीं थे | और जब हमने इस के तह में जा इसका कारण जानने की कोशिश की तो पाया की संवाद का अभाव इसका मुख्य कारण है | और आज के युग में हमें संवाद स्थापित कर काम करने की सख्त जरुरत है |