गंगा पार वाले बिहार के मिथिला क्षेत्र में में 20% मुसलमान हैं, 25% दलित हैं, 40% पिछड़ी जाती के लोग रहते हैं | ऊँची जाती की आबादी 15% भी नहीं हैं और मिथिला के विकास के नाम पर बने सारे संस्थान के सारे पद इन्ही ऊँची जाती वालों ने हथिया रखा है | इस बात को देखते हुए दिली इच्छा होने के बाबजूद भी मिथिला आंदोलन में भाग लेने से एक खास किस्म का डर लगता है |
हम क्या करते हैं, आज हमने आंदोलन की शुरुआत की और कल से हम अपने ही समाज के लोगों की खिंचाई कर सस्ती लोकप्रियता हासिल करने की कोशिश शुरू कर देते हैं | उनके कामों पर अंगुली उठाना हम अपना परम कर्तव्य समझने लगतें हैं और फिर इस चक्रव्यूह में फंस कर रह जातें हैं, और इससे अलग हट कर सोच नहीं पातें हैं |
" एक गाँव के गर्ल स्कूल पर कुछ घेराबंदी करने गए, तो कंपाउंड के अन्दर कुछ मवेशी बंधे थे | साथियों ने कहा कि मवेशी वाले को कहते हैं कि अपना मवेशी हटा ले, लेकिन हमने मना कर दिया और कहा कि हम घेराबंदी करेंगे और किसी को कुछ नहीं बोलेंगे | हमें मवेशी वाले को बोलने की जरुरत भी नहीं पड़ी, घेराबंदी शुरू होते ही वो चुपचाप अपना मवेशी खोल कर चले गए | हमारा काम बिना किसी विवाद के हो गया, और हम मिथिला के विकास के सपने को इसी तरह से पूरा कर सकते हैं | "
अब प्रश्न ये उठता है कि हम क्यों 15% लोगों की बात करने के लिए आगे आयें और क्या इस 15% प्रतिशत लोगो के बीड़ा उठाने से मिथिला में विकासरूपी आंदोलन खड़ा कर सकते हैं ? क्या हमें तेलंगाना आंदोलन से नहीं सीखना चाहिये ? हमारी सोच में आज तक इस बात की स्पष्टता नहीं आयी है कि क्या मैथिल राज्य बनाना चाहिये और अगर राज्य बनता है तो क्या वो अपने पैरो पर खड़ा हो सकेगा ? और जब देश की कल्पना होगी तो क्या हमारा देश नेपाल चीन की सीमा पर मधेशी एकता की डर से कभी भी इस कल्पना को साकार होने देगी ?
जब हम बात मिथिला के विकास की करते हैं तो सबसे बड़ी बात देखने की होती है कि उस पर आम लोगों क्या प्रतिक्रिया देते हैं | गाँव-समाज के लोगों में इस बात को लेकर क्या समझ बनती है, और क्या ये एक कटु सचाई नहीं कि मिथिला शब्द के आते ही इसे ब्राह्मणों का एजेंडा कह आम जनता ख़ारिज कर देती हैं इस पर भी तार्किक बहस करने की जरुरत है |
हमने पिछले एक साल में मिथिला आंदोलन से जुड़े काफी पत्र, पत्रिका, लेखक और लोगों को जानने, पढने, समझने की कोशिश की है | मिथिला के विकास के मुददे पर आमजन की राय को गहराईपूर्वक अवलोकन करने की कोशिश की है, और निष्कर्ष ये निकला कि फिर से हम वही काम कर रहें जिसमें हमने हर बार मुहं की खाई है | और डर इसी बात का है कि अगर हम आज भी जनता में एकमत बनाने में कामयाब नहीं हो पाये हैं तो कहीं फिर से हम विफलता का एक अंग बन कर न रह जाएं |
देखिये स्पष्टता रखनी होगी दिमाग में तभी हम मैथिली और मिथिला के विकास के परिकल्पना को तभी पूरा कर सकते हैं, और उसके लिये नीचे के स्तर पर जा कर हमें काम करना होगा | सोशल मीडिया, अख़बार, रेडियो, वेब पोर्टल, मैथिली समाचार का एक सीमा है और उस सीमा से आगे हम इसके द्वारा नहीं जा सकते हैं | इसीलिये जब तक हमारा आंन्दोलन लोगों के दिलो दिमाग को नहीं झकझोड़ेगा तब तक मिथिला की विकास की परिकल्पना को हम साकार नहीं कर सकते हैं |