बातचीत के शुरूआत मैंने ही की थी | सप्ताह भर का साथ, हमेशा मुस्कुराता हुआ चेहरा और मेरे चुहलपन ने एक नाता सा जोड़ दिया था | दोपहर में फुर्सत के क्षण में साथ बैठे तो मेरे मन में यूँ ही घर परिवार के बारे में बात करने की इचछा प्रबल हो गयी | कुछ देर इधर उधर की बातें करते हुए अम्मा के मूड का थाह लगाया और गाँव समाज पर चर्चा की शुरुआत कर दी | बात बढ़ी, चर्चाओं के सिलसिला का दौर चला और दूरियां कम हो गयी |
बातें करते हुए मैंने अम्मा का पिछले घंटे आया फ़ोन की चर्चा छेड़ दी | फिर एक प्यारा सा प्रशन अम्मा से पूछा दी तुम्हें बेटा ज्यादा मानता है या बेटी | अम्मा पहले थोडा सा सकपकाई, फिर मुस्कुराने लगी | फिर एक परिपक्व राजनीतिज्ञ के तरह जबाब देती है कि दोनो मानते हैं | आखिर मैं भी कहाँ रुकने वाला था तो मैंने भी उसी प्रशन को दोहराते हुए अम्मा को प्यारा सा झिड़की लगया और बोला की अम्मा आज तो बताना पड़ेगा | फिर बेचारी अम्मा शरमाते हुए बताती है कि बेटी मानती है | सुनते ही मैंने नहले पे दहला दे मारा | " हाँ अम्मा मेरी भी एक बेटी ही है " | मुझे भी खूब मानेगी | मैं तो इस अवसर के ताक में था !
अब तो अम्मा मुझे ही घुरने लगी और आश्रयचकित होते हुए पूछ बैठी की एक बेटी ही है? मैंने भोला सा चेहरा बनाया और अपना सर हिला ऊपर वाले की महिमा बता दी | बेचारी अम्मा ठहरी भारतीय नारी, रहा नहीं गया और तुरंत पूछ बैठी बेटा नहीं है क्या ? इस प्रशन के लिये मैं तैयार ही था, निराशा का भाव चेहरा पर लाकर बताया कि अम्मा एक बेटी ही है और ऊपर वाले एक तरफ इशारा कर दिया |
बेचारी अम्मा सोच में डूब गयी और एक क्षण में मानो उनका सारा बेटी प्रेम खत्म हो गया और वो ऊपर वाले से मेरे लिए एक बेटा का दुआ करने लगी | जब मैंने टोका की अम्मा अभी तो तुम कह रही थी कि तुम्हें तो बेटी मानती है तो रहने भी दो | तो अम्मा भावुक हो बोलती है नहीं रे पगले एक बेटा तो होना ही चाहिये, मानने से क्या होता है |