वैराग्य मन भर का खाली दामन
उलफत के झाँसे में ह्रिद्य पावन
सोच में बैठा वो इंसान की कश्ती थी डूबी
ठोकर और रफ़्तार के टकराओं की बहुचर्चित ये खूबी.
लेकिन टूटे पटरो में सपनों के रेशे थे
गढ़े ढाँचे में बच्चों के मेले थे
पर समय का प्रहार है, कौन जीत-ता
आँसुओं की फुहार है, कौन सीट-ता
पानी ने ले ली पानी की जगह
खून के ज़िम्मे को कैसे मिले अब पनाह?
गरजे थे बादल, राग था मल्हार
श्वेत से बेरंग नयन, झूके नज़र माने हार
लेकिन था तो सावन, हरियाली में बात थी कोई
क्षत -विक्षत भी था तो अल्फ़ाज़, व्योम की शृंखला थी रोई.
फिर आँधी एक आई, पल्लव बिछ गये कदमों से पहले
नाविक की चीख एक आई, प्रकृति की तृष्णा कुर्बानी कर डाले.
टूटे पेड़ लगा रहे थे आरव को पुकार
कह र्हे थे नाविक को उसे देने एक ढला आकार.
एक हसी गूँजी, मदिरा पे भारी सी लगी
एक जान बुझी, कीमत उसकी गाढ़ी सी लगी.
आत्मा-मन को संतोष था, वो अब खामोश था
सपनों के स्तब्ध बाग में अब पंखुरियों में भी जोश था.