मैं मूल रूप से मैं डिप्लोमा होल्डर हूँ और बाकी सारी डिग्रीयाँ, AMIE, MCA, MBA, LLB, PhD आदि मैंने सर्विस के साथ ही अर्जित की हैं.
उत्तर प्रदेश में पॉलिटेक्निक को नियंत्रित करने वाली संस्था का नाम है बोर्ड ऑफ़ टेक्निकल एजुकेशन. पहले पॉलिटेक्निक कॉलेजों में भी छात्र संघ के चुनाव हुआ करते थे. खूब नेतागिरी होती थी. बाकायदा चुनाव प्रचार होता था, ये बात अलग है कि चुनाव जब कॉलेज स्तर के हैं तो पूरे शहर में पोस्टर लगाने का कोई औचित्य नहीं था, पर पूरे शहर में पोस्टर लगाए जाते थे. बैनर, झंडे, नारेबाजी; मतलब पूरा तामझाम. जाहिर सी बात है कि इस चुनावों में कोई आर्थिक रूप से सक्षम और बाहुबली ही भाग ले सकता था. खुलकर गुंडागर्दी होती थी. यहाँ तक कि चाकू और गोलियां भी चलती थी. कई बार तो हत्याए भी हुयी. इन सबसे परेशान हो कर प्राविधिक शिक्षा परिषद (बोर्ड ऑफ़ टेक्निकल एजुकेशन) ने चुनाव बंद करवा दिए. शायद कोर्ट के आदेश से ऐसा हुया होगा. नियम ये बना कि जिसके प्रवेश परीक्षा में अधिकतम अंक होंगे वो प्रथम वर्ष में अपनी कक्षा का प्रतिनिधि होगा. जिस छात्र के उसकी ब्रांच में सबसे ज्यादा नम्बर होंगे वो आगामी वर्ष के लिये कक्षा प्रतिनिधि अर्थात क्लास रिप्रेजेन्टेटिव होगा. जो द्वितीय वर्ष में सभी ब्रांचेज में सबसे ज्यादा अंक लाएगा वो पूरे कॉलेज का छात्र प्रतिनिधि (स्टूडेंट रिप्रेजेन्टेटिव) होगा. छात्र प्रतिनिधि को छात्रो से जुड़े किसी भी मामले में निर्णय लेने के लिए बैठको में बुलाया जाता था. सबसे ज्यादा मजा इस बात में आता था कि वार्षिकोत्सव के निमंत्रण पत्र पर प्रधानाचार्य के साथ छात्र प्रतिनिधि का भी नाम छपता था और वार्षिकोत्सव में उसे मंच पर मुख्य अतिथि, प्रधानाचार्य और प्रबंधक मंडल के साथ बैठने के लिए कुर्सी मिलती थी. खैर......
यूं तो ये बात 26 साल पुरानी है लेकिन लगता है जैसे कल की ही बात हो. मैं डिप्लोमा अंतिम वर्ष में था अर्थात ये बात 1989-90 की है. मैं 1987 में प्रवेश परीक्षा में अधिकतम अंक लाने के बाद दो साल तक कक्षा प्रतिनिधि और अब अंतिम वर्ष में छात्र प्रतिनिधि था. तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री वी पी सिंह द्वारा मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करते ही आरक्षण विरोध का बादल फट पडा और चारो ओर छात्रो के धरने और प्रदर्शन होने लगे. हमारे कॉलेज में भी छात्रो ने विचार-विमर्श किया कि हमें भी कुछ करना चाहिए. रोज मीटिंग्स होने लगी. उत्तेजक भाषण होने लगे. छात्र प्रतिनिधि होने के नाते मैं इन सभी गतिविधियों के केंद्र में तो था, लेकिन इस सबसे सहमत भी था और असहमत भी. मैं आरक्षण का विरोधी तो था लेकिन किसी भी तरह के हुडदंग के खिलाफ था. स्थानीय समाचार पत्र में जब छात्रो में नाम छापते थे कि फलां छात्र नेता ने ये कहा... तो ये उस लड़के के लिए बड़ी सम्मान की बात होती थी और जिनका नाम समाचार पत्र में नहीं आता था वो लोग शिकायत करते थे. कई दिन के बाद अंत में ये कार्यक्रम बना कि पूरे शहर में जुलूस निकाला जाएगा जिसमे नारे लगाने के लिए एक रिक्शा पर लाउड स्पीकर होगा, शोर मचाने के लिए ढोल और हाथ में पकड़ने के लिए तख्तियां, जिन पर नारे लिखे होंगे. नए नए नारे गढ़े गए. दो मुझे अब भी याद हैं क्योंकि वो मैंने रचे थे:
दूर पुरानी गंद करो, आरक्षण को बन्द करो.
और दूसरा था
चीख रहे धरती आकाश, आरक्षण अब है बकवास.
इस जुलूस को निकालने के लिए धन की जरूरत थी. उस ज़माने में दो रूपये प्रति छात्र की दर से चंदा वसूला गया. ‘वसूला’ शब्द इस लिए प्रयोग कर रहा हूँ क्योंकि सभी की सहमति इसमें नहीं थी, इसलिए चंदा इकट्ठा नहीं किया गया था वसूला गया था. जाहिर सी बात है इस पूरे आन्दोलन का नेतृत्व कॉलेज के दबंग, पढाई-लिखाई में सबसे पीछे रहने वाले, दादा किस्म के लोग कर रहे थे. मेरी विडम्बना ये थी कि मुझे छात्र प्रतिनिधि होने के नाते इनके साथ रहना पड़ता था. जुलूस के लिए नियत तिथि से एक दिन पहले प्रधानाचार्य महोदय और अन्य अध्यापको को इसकी भनक लग गयी. उन्होंने मेरे समेत सभी छात्र नेताओ (मुझे सबके नाम याद हैं लेकिन लिखने से विवाद जन्म लेगा) को लाइब्रेरी में मीटिंग के लिए बुलाया. प्रधानाचार्य श्री सचेन्द्र कुमार शर्मा, इलेक्ट्रिकल के हेड ऑफ़ दी डिपार्टमेंट श्री पी के अग्रवाल, मैकेनिकल के हेड ऑफ़ दी डिपार्टमेंट श्री मदन लाल ढींगरा, सिविल के श्री जैन, श्री वी पी सिंह, श्री संजीव भाटी, श्री अखिलेश शर्मा, श्री टी पी सिंह, श्री राजगोपाल शर्मा, श्री लाइक अहमद, प्रॉक्टर श्री महिपाल सिंह आदि आदि सभी बैठे हुए थे. अध्यापको और प्रधानाचार्य महोदय ने हमें बहुत प्यार से समझाया
देखो हम तुम्हारी आरक्षण विरोधी मांग का समर्थन करते हैं लेकिन किसी भी तरह के जुलूस निकालने के विरोधी है
सर, हम समाज में आरक्षण के खिलाफ जागरूकता लाना चाहते है, अगर हम जुलूस नहीं निकालेंगे तो लोगो तक हमारी बात कैसे पहुंचेगी?
बेटा आप समझ नहीं रहे हो. जैसे ही बात कॉलेज की चारदीवारी से बाहर निकलती है वो कुछ और ही रूप ले लेती है. आप को जो करना है वो जरूर करो लेकिन कॉलेज के अन्दर ही करो.
नहीं सर जब तक बात आम लोगो तक नहीं पहुंचेगी तब तक हमारा उद्देश्य सफल नहीं होगा.
आप लोग समझने की कोशिश करो. कॉलेज से एक बार बाहर निकलने के बाद अगर आपके जुलूस में स्थानीय गुंडा तत्व शामिल हो जाता है. लोग दुकाने लूटते हैं, पत्थर बाजी होती है तो इसका जिम्मेदार कौन होगा? बाद में पुलिस केस होने पर हम ये कैसे सिद्ध करेंगे कि वो हमारे छात्र नहीं थे गुंडे थे? इलज़ाम तो आप पर ही आएगा.
सर बाहर 500 लोग हमारा इन्तजार कर रहें हैं. हम इतना आगे बढ़ चुके है कि अब हम पीछे नहीं हट सकते. जुलूस का सारा इंतजाम हो चुका है. रिक्शा, लाउड स्पीकर, तख्तियां, बैनर सब बन चुके है. अब जुलूस नहीं रुक सकता.
हम कब कह रहे हैं कि तुम जुलूस ना निकालो. जरूर निकालो लेकिन उसे कॉलेज की चारदीवारी के अन्दर रखो. लाउड स्पीकर लगा कर पूरे कंपाउंड के खूब चक्कर लगाओ, खूब नारे लगाओ, खूब ढोल बजाओ. हम भी तुम्हारा साथ देने को तैयार हैं. हम भी साथ में नारे लगायेंगे. सिर्फ आप लोग कॉलेज से बाहर मत निकलो.
सर हम पांच-छ: लोग अकेले ये निर्णय नहीं ले सकते. हमें आधे घंटे का समय दीजिये ताकि हम बाकी लोगो से बात करके आपको अपना अंतिम निर्णय बता सकें.
ठीक है.
स्वंभू नेता लोगो की दिलचस्पी आरक्षण के समर्थन या विरोध में कम थी और हुडदंग मचाने में ज्यादा. साथ ही चंदे में इकट्ठा किये गए पैसे को भी पचाना था इसलिए 10 मिनट में ही फैसला हो गया और हमने वो फैसला फिर से लाइब्रेरी में जाकर प्रधानाचार्य महोदय और अन्य शिक्षको को सुना दिया.
सर, जुलूस तो निकलेगा
अब बातचीत की कोई गुंजाईश नहीं थी. प्रधानाचार्य महोदय ने थोडा सा झुका कर दोनों हाथो से अपना सर पकड़ लिया.
शाम को जब मैं घर लौटा तो पापाजी ने फरमान सुनाया
कल तुम कॉलेज नहीं जाओगे
लेकिन पापाजी......
हमें कोई बहस नहीं चाहिए
लेकिन मेरी बात तो सुनिये....
कह दिया ना नहीं जाओगे मतलब नहीं जाओगे. बात ख़तम
पापाजी से इससे ज्यादा बहस करने की मेरी औकात नहीं थी. मेरे पिता जी बडौत में ही एक इंटरमीडिएट कॉलेज में उप प्रधानाचार्य थे. बाद में पता चला कि प्रधानाचार्य महोदय ने मेरे पिता जी को उनके कॉलेज में फोन किया था और उनसे ये निवेदन किया था कि किसी भी तरह आप अपने लड़के को कल कॉलेज आने से रोक लीजिये वरना अनर्थ हो जाएगा.
अगले दिन जब मैं नियत समय पर कॉलेज नहीं पहुंचा तो कुछ लोग मुझे बुलाने मेरे घर आये. मेरे घर वालो ने झूठमूठ ही कह दिया कि वो घर पर नहीं है जब कि मैं घर के अन्दर ही था. बड़ी घुटन हो रही थी इस तरह दब्बू, डरपोक और गद्दार सिद्ध होने में. लेकिन सारी बहादुरी और हीरोपंती पर संस्कार भारी पड रहे थे और मेरी कोई हिम्मत नहीं थी कि मैं पिता श्री की आज्ञा का उल्लंघन कर पाता.
काफी समय तक मेरी प्रतीक्षा करने के बाद मेरे बिना ही जुलूस निकाला गया और सबसे पहले उन्होंने मेरे घर के नीचे आ कर मेरे विरुद्ध नारे लगाये. मैं चुपचाप सब कुछ सुनने को मजबूर था और कर भी क्या सकता था. उसके बाद मुख्य बाजार में जुलूस निकला. कुछ ज्यादा जोशीले लोगो ने बाजार बन्द कराने की भी कोशिश की जबकि बाजार बन्द कराना पूर्वनियोजित कार्यक्रम का हिस्सा नहीं था. स्थानीय दुकानदारों ने इसका विरोध किया. इस पर छात्रो और दुकानदारों के बीच झडपे हुयी. अंत में पुलिस आयी और जुलूस का अंत भाग-भाग कर अपनी-अपनी जान बचाने से हुया.
अगले दिन जब मैं अपने क्लास में पहुंचा तो सबसे पीछे कोने में एक कुर्सी रखी हुयी थी जिस पर लिखा था क्लास रिप्रेजेन्टेटिव. मुझे बताया गया कि तुम समाज से बहिष्कृत हो क्योंकि तुमने अंतिम समय पर धोखा दिया है इसलिए तुम्हे सब से अलग इसी कुर्सी पर बैठना होगा. मैं उसी कुर्सी पर बैठ गया. पहला पीरियड ही कंट्रोल ऑफ़ इलेक्ट्रिकल मशीन पढाने वाले वी पी सिंह सर का था. उन्होंने पूछा ये सब क्या है तुम सबसे पीछे कोने में क्यूं बैठे हो. मैंने भी बता दिया कि ये इन सब लोगो का फैसला है. वी पी सिंह सर ने पूरी क्लास से कहा “क्या आप लोगो में से किसी ने भी इससे पूछा कि ये कल क्यों नहीं आया था. बिना इसकी समस्या या मजबूरी जाने तुम सबने एक तरफा फैसला ले लिया. एक बार कोई तो पूछ कर देखता कि वो कल क्यूं नहीं आया था. हो सकता है उसका बताया हुया कारण तुम्हे उचित लगता और तुम्हारी शिकायते दूर हो जाती. जीवन में कई बार ऐसे मौके आते हैं जब आपको ऐसे कठिन निर्णय लेने पड़ते हैं. अगर मैं इसकी जगह होता तो मैं भी यही निर्णय लेता. ये बात मैं इस लिए कह रहा हूँ क्योंकि मैं उसकी समस्या को व्यक्तिगत रूप से जानता हूँ और उसके निर्णय को उचित मानता हूँ. आप सभी से निवेदन है कि आप उसे पूर्ण सम्मान के साथ स्वीकार करें और उसे उसकी पुरानी जगह पर बैठने दें.”
वो बात तो वही ख़त्म हो गयी लेकिन आज दोपहर में जब मैं खाना खाने घर आया तो देखा हर न्यूज़ चैनल पर एक ही खबर चल रही थी. खबर ये थी कि शनिवार को दिल्ली में प्रदर्शन करने वालो छात्रो की दिल्ली पुलिस द्वारा बेरहमी से पिटाई की गयी.
मैं तब से यही सोच रहा हूँ कि अगर मेरे पिताजी की तरह इन्हें भी इनके मातापिता ने धरने, आन्दोलन, प्रदर्शन में भाग लेने से रोका होता तो इनकी ऐसी पिटाई ना होती.
आप ही बताईये आप में से कौन-कौन माता-पिता ये चाहता है कि आपका बेटा या बेटी स्कूल, कॉलेज में जाकर पढाई-लिखाई करने की बजाय सड़क पर जाकर धरने, आन्दोलन, विरोध प्रदर्शन में हिस्सा ले. स्कूल-कॉलेज शिक्षा के केंद्र होने चाहिए या राजनीति के?

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