इसबार सर्दियों में वही पुरानी गॅरेज में रखी ट्रंक से पुराना कंबल निकला..उसकी यादों की खुश्बू से महका हुआ |
इसे ओढ़े ना जानें कितनी रातें गुज़री थी |
बातों ही बातों में कुछ बात थी जो कहनी तो थी, पर होंठों तक आ ना पाई थी |
सर्द हवाओं से बचाती तो हैं ये चार दीवारियाँ,
पर दिल रातों में , बाहर नंगा सा घूमता , ठंड में सकपका जाता है |
सोचता हू बीतें सालों के थान से यादों का एक टुकड़ा काट लाऊँ और उसे सी कर सिरहने का एक कवर बनाऊँ,
रात का अकेलापन यादों की खुश्बू से शायद कुछ तो कम होगा |
यूँ भी सोचता हूँ की उस टुकड़े से एक टोपी बना लूँ,
हवाए कुछ सर्द है बाहर आजकल |
पहेन के निकलूंगा उस टोपी को तो शायद यादों की गर्माहट से कुछ सुकून मिले…
थोड़ा इस जिस्म को भी और थोड़ा इस जान को भी |
पूस की रातों मे बदन जब कंपकापाने लगता है,
तो अलाव के करीब बैठ जाता हूँ.
उसकी गर्मी का कंबल जब ओढ़ता हूँ,
तो लगता है जैसे हवाओं मे अब वो आ बसी हो |
अगल बगल झाँकता हूँ,
तो मुझसे मिलते जुलते अधमरे रूह के टुकड़े दिखते हैं |
कल रात शायद उन सब ने यहीं गुजारी थी |
किसी का कंबल पीछे छूट गया लगता है |
कुछ दूर एक आग और जलती दिख रही है|
शमशान है शायद , जहाँ आशिक़ों के अरमान जलाए जाते हैं |