अभी दो-तीन दिन पहले मैंने दिल्ली में यातायात की समस्या से निबटने के लिए कुछ सुझाव दिए थे. एक मित्र ने आरोप लगाया है कि वो मेरे मौलिक विचार नहीं थे और मैंने इधर उधर से सुन कर उन पर अपना नाम चिपका दिया है. सुन कर दुःख हुआ. लेकिन सोशल मीडिया चीज ही ऐसी है कि यहाँ हर कोई अपने विचार व्यक्त कर सकता है. साथ ही फायदा ये है कि हर कोई लेखक बन गया है, जिसमे मैं भी हूँ. वरना कौन सी पत्रिका या अख़बार मेरे इन लेखो को छापता. चलिए इस का जम कर फायदा उठाते हैं और अपने दिमाग का एक और शोर आपके दिमाग में डाल देते हैं.
बात चल रही है दिल्ली में ट्रैफिक की समस्या से कैसे निबटा जाए. लेकिन उससे भी मूलभूत सवाल ये है कि दिल्ली में ट्रैफिक की समस्या है क्यों? साफ सी बात है, क्योंकि दिल्ली देश की राजधानी है. अब राजधानी है तो राष्ट्रपति भवन, संसद भवन, सारे मंत्रालय, उनके सचिवालय आदि आदि यही पर है. इन से अलग ना जाने कितने विभाग, उन के मुख्यालय, क्षेत्रीय कार्यालय, जाने कितने आयोग, ट्रिब्यूनल, अदालते, अनुसन्धान केंद्र आदि आदि. इसके बाद फिर दिल्ली सरकार के ये ही सब कार्यालय, फिर सारी राजनीतिक पार्टीज के ऑफिस, कितनी साहित्यिक संस्थाए, सारे अखबारों के मुख्यालय, टीवी चैनेल्स के ऑफिस, बहुत सारी पुरातत्व और पर्यटन के महत्व की इमारते, विश्व के विभिन्न देशो के दूतावास. कुल मिला कर कहने का मतलब ये है कि दिल्ली पूरे देश का मुख्यालय है, पूरा देश दिल्ली से चलता है और सारे प्रदेशो के लोगो को दिल्ली में काम पड़ता है. एक बहुत छोटे से क्षेत्र में बहुत ज्यादा कार्यालय हैं. सुबह होते ही यूपी, हरियाणा, राजस्थान आदि के बहुत सारे लोग अपने दैनिक कामो और नौकरी के सिलसिले में दिल्ली की तरफ भागते हैं और शाम होते ही वापस दिल्ली से बाहर की तरफ भागते हैं. आपको और मुझे तो अंदाजा भी नहीं है कि दिल्ली में किस-किस विभाग के कौन-कौन से कार्यालय हैं.
इलाज क्या है? मेरे ख्याल से इलाज है विकेंद्रीकरण (De-Centralization ). आज सूचना प्रौद्योगिकी (IT) के ज़माने में सारे कार्यालयों के भौतिक रूप से एक साथ होने की क्या आवश्यकता है. आज जब ज्यादा से ज्यादा सरकारी विभाग ई टेंडरिंग से निविदाये खोल रहें है. मामूली से मामूली आदमी भी वेब से चीजे खरीद रहा है और बैंकिंग कर रहा है. जब पैसे के लेनदेन में तकनीक पर भरोसा कर सकते हैं तो फिर हर क्षेत्र में कर सकते हैं. आज डिजिटल सिग्नेचर जुड़ते ही ईमेल भी वैध सरकारी कागजात है तो कागज़ को इधर उधर भेजने की क्या जरूरत है. रही बात मीटिंग्स की तो विडियो कॉन्फ़्रेंसिंग से आप वर्चुअल मीटिंग कर सकते हैं. दिल्ली में पहले ही बहुत सारे सरकारी कार्यालय एनआईसी के ई ऑफिस का प्रयोग शुरू कर चुके हैं. इसमे फाइल इलेक्ट्रोनिक फॉर्म में होती है और आप अपनी नोटिंग भी इलेक्ट्रोनिक फॉर्म में ही करते हैं; पेपर फॉर्म में फाइल मूवमेंट का पूर्ण विकल्प. निष्कर्ष ये है कि सचमुच में इन सारे मंत्रालय और कार्यालयों को दिल्ली में होने की जरूरत नहीं है.
थोडा विएर्ड (अजीब) सा आईडिया है लेकिन सोच के देखिये कि कपडा मंत्रालय सूरत में हो, कोयला मंत्रालय रांची में, रेल मंत्रालय भोपाल में, सूचना प्रौदौगिकी बैंगलोर में, नागरिक उड्डयन हैदराबाद में, पर्यटन मंत्रालय जयपुर में.......... और बड़े शहर ही क्यों इसमे छोटे शहर भी शामिल किये जाए ताकि उनका भी विकास हो सके.
इससे ना सिर्फ दिल्ली पर जनसंख्या दबाव ख़त्म होगा बल्कि देश के अन्य शहरो का भी विकास होगा. इन शहरो में नयी इमारते बनेंगी, नए लोग पोस्ट होंगे उनके लिए मकान और बाजार की जरूरत होगी. इन मंत्रालय में कामो के लिए शेष भारत से लोग आयेंगे और उनके रहने और खाने के लिए रोजगार बढेगा. पूरे देश में लोगो को देश से ज्यादा जुड़ाव प्रतीत होगा. उन्हें लगेगा कि उनके शहर या राज्य की भी महत्ता है और वो भी देश की उन्नति में सक्रीय रूप से भागीदार हैं. राज्यों और प्रदेशो के बीच की कटुता कम होगी. पूरे देश में समरसता का माहौल होगा. जनसंख्या के विकेंद्रीकरण से जमीन जायदाद के रेट घटेंगे. सब लोग मकान खरीद पायेंगे. मजदूरों का पलायन रुकेगा. सरकारी कर्मचारी दिल्ली की पोस्टिंग पाने की होड़ से मुक्त होंगे. जितना प्रायोगिक रूप से संभव हो ये मंत्रालय या कार्यालय छोटे शहरो में शिफ्ट किये जाये. लेकिन पहले वहां तक यातायात के पर्याप्त साधन विकसित किये जाएँ. मुझे लगता है एक पूरी क्रांति हो सकती है.
दूतावासों को इस योजना से अलग रखा जा सकता है और देश की सुरक्षा से जुड़े विभागों को भी. जहाँ तक डाटा की सुरक्षा का सवाल है तो इसके लिए भारत सरकार अपना अलग नेटवर्क बनाये जिसका इन्टरनेट से कोई सम्बन्ध ही ना हो और ये सिर्फ सरकारी कामकाज के लिए इस्तेमाल किया जाए.
पता नहीं ऐसा हो सकता है क्या? बस दिमाग में आया और लिख दिया. आपका क्या ख्याल है......

Tags: Civics, Delhi, Traffic

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