राजीव गाँधी का दौर देश के लिए नए बदलाव का दौर था | वोट करने के उम्र को घटाने से लेकर पंचायती राज व्यवस्था में बदलाव के क्रांतिकारी कदम ने गाँवों के लोगों में एक नयी उल्लास जगाने का काम किया | संविधान संशोधन के जरिये पंचायती राज कानून को मान्यता मिली और गाँवों के आम आदमी की भागिदारी विकास कार्यो में बढ़ी | पंचायतों के अधिकार में वृद्धि और उनके पैसे का स्थानीये स्तर पर खर्च करने का अधिकार ने पूरी व्यवस्था में एक नयी उर्जा का संचार किया |
गाँव गाँव में पंचायत चुनाव के होने से स्थानिये स्तर पर दबे-कुचले, गरीब, पिछरे, अल्पसंख्यको वर्गों का प्रभाव व्यवस्था में बढ़ा और उनका सामाजिक उत्थान हुआ | इस बदलाव ने गाँवों में विकास का एक नया किरण पहुचानें का काम किया और गरीब-गुरबों के सत्ता में हिस्सेदारी का ललक ने सामाजिक ताने बाने को फिर से बुनने का काम किया | गरीब लोग जो स्थानिये समस्यायों को सुलझाने में अपने आप को असमर्थ पाते थे, वह सब पंचायत प्रतिनिधियों के पहल से सुलझने लगा और विकास की गूंज बड़े शहरों से इतर गाँव के गलियों में पहुँचने लगा | आरक्षण और अन्य प्रावधानों ने सामाजिक समरसता लाने में एक ठोस शुरुवात की जिसने करोड़ो लोगो के जीवन स्तर को बदलने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई |
बिहार इस मायने में अभूतपूर्व बदलाव का गवाह रहा | पहली बार देश के किसी राज्य में पंचायत चुनाव में महिलाओं को 50 प्रतिशत आरक्षण दिया गया | लाखो की संख्या में महिलायें घर की चौखट लाँघ सत्ता में अपनी भूमिका तलाशने निकल पड़ी और बदलाव की इस नई किरण ने जाने-अनजाने में बिहार को देश के स्तर पर एक नयी उदहारण के तौर पर पेश किया |
लेकिन जब बात पंचायती राज की आती है तो स्थनिये स्तर पर शासन प्रणाली को मजबूत बनाने की बात कि जाती है | तहसील के बाद बात सीधे पंचायत की आती है, जहाँ स्थानिये स्तर पर शासन व्यवस्था का मकसद लोगो के कामों में साहूलियत प्रदान करना होता है | परन्तुं आज तक गाँव के स्तर पर इस प्रणाली को एक ठोस स्वरुप नहीं दिया जा सका है | हालात इतने बुरे हैं कि लोगो को जब भी शासन से कोई काम होता है तो उन्हें तहसील का चक्कर लगाना पड़ता है | छोटी मोटी बात के लिए भी तहसील का चक्कर लगाना आम बात हो गया है और आम लोगों में यह धारना बन गयी है कि काम करने का यही तरीका है | जो काम पंचायत भवन में बड़ी ही आसानी से किया जा सकता है उसी काम के लिये तहसील कार्यालय पर लोगो का दिन भर लगाने वाली भीड़ इस कहानी के सचाई को बयां करती है |
पंचायत भवन का बंद रहना आम बात है | आज के समय में पुरे बिहार राज्य में हर पंचायत भवन पर 8 कर्मचारी कार्यरत हैं, परन्तु हाल ये है कि पंचायत भवन का ताला सप्ताह में एक बार भी नहीं खुलता | लोगो की भीड़ पंचायत भवन पर आ कर लौट जाती है और मुखिया के घर पर समांतर पंचायत लगती है परन्तु समस्या का हल यहाँ भी नहीं होता क्योकिं कर्मचारियों की अनिस्चिस्ता किसी भी काम में लगने वाले समय को बढ़ा देती है, और लोग अकारण कर्मचारियों के घर का चक्कर काट-काट कर परेशान हो जाते हैं | काम करवाने के एवज में घुस की बात को तो छोर ही दीजिये, पैसे लेने का ये माध्यम काफी संगठित बन कर उभरा है | काम को जान बुझ कर देर से किया जाना, लोगो से मुलाकात न करना, फाइल के चक्कर में काम को उलझाये रखना और अन्य तरीके से लोगो के द्वारा ज्यादा से ज्यादा पैसा वसूला जाता है |
आज के तारीख में पंचायत कार्यालयों का यही हाल है | जब हम स्थानीय स्तर पर शासन प्रणाली विकसित करने की बात करते हैं, तो सब से पहले हमें इस समस्या के समाधान को दुढना होगा और तब गाँधी के पंचायती राज और ग्राम स्वराज के व्यवस्था की परिकल्पना को साकार किया जा सकेगा |