उमड़ती घुमड़ती आखों से झांकती जिन्दगी के ये लम्हे, परदे में लिपटी जवानी और आखों का सूनापन हर आने जाने वालो में एक अपनापन का तलाश | यही तो नसीब है हमारे जैसे लोगो का | अपना घर, अपना संसार, अपना समाज छोर कर कहीं दूर एक उजड़ता सुनसान सा जगह में रहने को मजबूर होते हैं | और इसी पलायन के संदर्भ में हमारी कहानी शुरू होती है दिल्ली के एक अजनबी बस्ती से जहाँ हम जैसे लोगो के लिए हर चीज नयी होती है | जी हैं हर चीज और यहाँ तक की मिटटी की खुसबु में भी एक नयापन होता है | और हम मजबूर हो कर हर अनजानी चीज को अपनाने के लिए तत्पर होते हैं या यूँ कहें एक नयी जिन्दगी जीने को मजबूर होना पड़ता है |
किसी ज़माने में न कहें, ये आज से बस दस साल पहले की बात है यहाँ घर-घर में लोग भैस पाल कर जीवनयापन करते थे और आधुनिक विकास ने ऐसा करवट लिया की आज बड़ी बड़ी बिल्डिंगो के बनने से अब सूरज की रौशनी का भी दिख पाना मुमकिन नहीं रहा | और इसी बिल्डिंग के किसी कोने से झाँकती हमारी आखों अपनी कहानी कहने को व्यग्रता से इंतजार करती रहती हैं, लगता है मानो जिंदगी एक अनजाने कोने में सिमट कर रह गयी है | जिसका ना कोई उद्देश्य है और न कोई मंजिल |
पर्व त्योहार का उल्लास चौखट के कोने को लाँघ बाहर नहीं आ पाता है और हम एक कमरे में बैठे अपने-आप में सिमटे खुशीयां को ढूंढते रहते हैं | कभी फोन, कभी टीवी, कभी इंटरनेट एक सहारा बन कर आता है और हम उसमें अपनापन ढूंढते रहते हैं |
गावं की गलियों की याद रुला जाती है और एक गहरे सूनेपन का एह्स्सास दिल के किसी कोंने में टीस बन के चुभता रहता है | और जब इस सूनेपन को दूर करने के लिए बाहर छत पर टहलने निकलता हूँ तो ये दर्द कम होने के बजाय दुगना हो जाता है | बाहर बच्चों को नए कपड़ों की नुमाईस करते देख अपने बचपन की याद और ज्यादा ताजा हो जाती है और ना चाहते हुए भी आँखों से आसूं छलक ही आते है |
इससे ज्यादा विडम्बना किसी के लिए क्या हो सकती है की घर जाने की इच्छा होने की बावजूद ना जा पाने का दर्द सीने में छुपाए अपने आप में ही छलक पड़ता हूँ | दर्द तब चौगुना हो जाता है जब कोई मित्र अपने घर परिवार के साथ दिवाली मनाने वाला विडियो भेज देता है, उसे देखकर ये भ्रम होने लगता है की हम जिन्दा है या सिर्फ हमारा शरीर हमारी आत्मा को ढोए जा रहा है | और क्या बतायें अपनी एहसास जब शारदा सिन्हा का छठ गीत के शब्द कलेजे को तीर की भांति छेद डालता है | चलिये हम कुछ भावनाओं में बह गए तो यहीं समाप्त करते हैं, हम जैसे विस्थापितो की यही राम कहानी है |