बर्बादियों के बेहिसाब टीलों पर बिलखते हुए दादरी के बिसाहड़ा गांव के अखलाक की मां, बेटी और भाई के चेहरे, उनकी आंखों में ख्वाबों के रेगिस्तान, उनके घरों में मातम के प्रेतों का बसेरा देखकर आपके कलेजे को ठंडक तो मिल ही गई होगी. ठंडक जरूर मिलनी चाहिए.. अरे भाई आपने धर्म जो बचा लिया.. संस्कृति जो बचा ली!
अखलाक तुमने मरकर हमारी पोल खोल दी. देखो पूरी दुनिया में '125 करोड़ भाईयों बहनों' के मुखिया होने का डंका पीटने वाले चुप हैं. और तुमने मरकर विदेशों में उनकी पोल खोल दी. तुमको मरना पड़ेगा अखलाक क्योंकि हमें चुनाव जीतना है. हमें कुर्सी चाहिए अखलाक... तुम जैसों को मरना पड़ता है.. हमारी कुर्सी के लिए क्या तुम मर नहीं सकते? अखलाक तुमको तो पता ही है कि सियासत के सौदागरों को तो ऐसे मौंकों की तलाश होती है. देखो न.. अब शुरू हो गई है तुम्हारी मौत की सौदागरी और निकल पड़े है सौदागर बेबसी के बाजार में आंसुओं का मोल लगाने. कुछ तुम्हें इंसान से एक कौम के हिस्सेदार बना दिए. फिर तुम्हारी जिन्दगी, तुम्हारी मां के दुध की.. तुम्हारी बीवी के सुहाग की.. बेटे को बाप से मरहूम करने की.. नोटों से कीमत लगाई गई. तुम्हारी सुरक्षा ना कर पाने का दंड भले ही किसी को ना दिया जाए लेकिन तुम्हारे परिवार को नौकरी देने का झुनझुना जरूर दिया जाएगा. अरे... भावुक ना हो अखलाक.. ये सियासी 'गिद्ध' हैं अखलाक.. वे सिर्फ तुम्हारी लाश पर सियासी रोटी सेंक रहे हैं. ये सियासत मुफलिसों से आंखें छीनकर चश्मे दान करती है.
सियासी फायदे के लिए लिफाफे में मजहब को बेचने वाले कौम के ठेकेदार दोनों तरफ हैं अखलाक. खुद को कौम के अलंबरदार बनने के लिए सभी 'गिद्ध' देखो तुम्हारी लाश पर मंडराने लगे. तुम्हारी सुरक्षा, रोटी और रोजगार की चिंता इन कौम के ठेकेदारों को नहीं होती है. इन्हें तो खाद पानी तुम्हारी लाश से मिलती है अखलाक... इसलिए तुम जैसों का मरना जरूरी होता है! अखलाक तुम्हारी मौत ने चांद पर पहुंचने वाले इस सभ्य समाज की पोल भी खोल दी. देखो अभी तक इंसान के लिए जानवर मारे जाते थे अब जानवरों के लिए इंसान मारे जाने लगे हैं. मरते वक्त अखलाक तुमने जरूर सोचा होगा कि मुसलमानों की कई पीढ़ियां बिसाहड़ा में शादी-ब्याह, तीज-त्योहार में साझा शामिल होती हैं फिर एक अफवाह से 100 साल का भरोसा कैसे टूट गया? ईद में जिनसे तुम गले मिले थे वे महज एक अफवाह पर डंडों से क्यों पीट रहे हैं. देखो जिस भाभी को तुम होली में रंग लगाए थे वह भी किनारे खड़ी होकर आंखों से ही सही अंगारे बरसा रही थीं. तुमने जरूर सोचा होगा कि तुम्हारी गोद में बैठकर धोती को गिला करने वाले तुम्हारे बेटे समान पड़ोसी हिन्दुओं के बच्चे आज तुम्हारे कपड़ों को खून से क्यों रंग रहे हैं? अखलाक मुझे पता है जिस गांव में बंद कमरों के भीतर की सिसकियां पूरा गांव सुन लेता था वह अब बिलखते.. तड़पते लोगों की रूह को कंपा देने वाली दर्दनाक आवाज भी नहीं सुन रहा है. हम मंगल पर पानी खोजकर खुश हो रहे हैं मुझे अब गांव के लोगों की आंखों में पानी सूखने का गम है. सोचिएगा... कैसा विकास हो रहा है आपका?
रही बात सियासत की.. तो कोई मुझे बताए कि इस कथित जम्हूरियत को दफनाने के लिए कौन सी जगह मुनासिब है? मुझे समझ नहीं आता कि ऐसी सियासत को कहां डूबो दूं... कहां दफना दूं..?
प्रधानमंत्री की बातें सुनकर अचानक मन भाव विह्वल हो उठता है. उम्मीद जगती है, सियासत में 'शऊर' की आमद का एलान लगता है. लेकिन अचानक मन सशंकित हो उठता है. सोचता हूं कि सियासत और धर्म के 'अवैध' रिश्ते की बानगी तो लोकसभा चुनाव से लेकर यूपी में 'घरवापसी' और लव जेहाद का लिटमस टेस्ट तो इनके रहते ही हो रहा था.. अब एक जानवर के लिए इंसान को मारा गया. पूरी दुनिया को खबर हो गई. चंद किलोमीटर दूर बैठे साहब को कैसे खबर ना हुई. फिर ये चुप क्यों हैं? मैं इनके शब्दों की `कट-पेस्ट` और विचारों की ऐसी `असेंबलिंग` देखकर सन्न हो जाता हूं.
खैर ये आलम दोनों तरफ है. अभी यूपी में कुछ ही महीनों पहले खून की होली खेलने के छींटे कईयों पर हैं लेकिन अपनी जिम्मेदारियों से हर कोई बच रहा है. अखलाक के गांव पहुंचने वालों की टोपियों पर नारे ही नहीं नीति और नीयत भी अब बदलती दिख रही है. इंसान अब कौम के रूप में बंट चुके हैं. सूबे के मुखिया और कौम के खास अलंबरदार को हिफाजत ना करने का अफसोस नहीं है. इन्हें कौम की सूरत बदलने की चिंता नहीं है इन्हें तो बस 2017 का डर सता है. किसी को डरा रहे हैं तो किसी से डर रहे हैं. राजनीति के दोनों तरफ के सौदागरों मुझे पता है कि सियासत में जज्बात काम नहीं आते हैं. आघात के इन विकट क्षणों में मैं अपनी जिंदगी के फ्लैशबैक में सभी चुनावों को भी टटोलने की कोशिश करता हूं. लेकिन इसमें टूटने-फूटने, व्यथित होने, हारने, हड़पने, अपमानित होने के सारे किस्से इंसानियत के साथ ही पाता हूं. इंसानियत को मारा पहले हमने हैं फिर सियासत ने. इसलिए केवल राजनेताओं को गाली देकर आप नहीं बच सकते हैं. रिश्तों के भरोसे का कत्ल पहले आपने किया अब उस लाश को ये सियासी 'गिद्ध' बस नोंच रहे हैं. याद रखें कोई भी 'ताकत' माजी और मुस्तकबिल के बीच पुल के रूप में होनी चाहिए जिससे कि मुल्क और समाज की तकदीर बने..
सुभाष पासवान