जाग ओ भारत के बेटे माँ भारती पुकार रही
अधर्मियो के वार से माँ अब चीत्कार रही
जाग ओ भारत के बेटे माँ भारती पुकार रही
विधर्मियों के लिए ही आज यहाँ का न्याय है
धर्म की बात करना पाप है अन्याय है
असभ्यो के हाथो में सभ्यता की बागडोर है
हो सभ्यता की रक्षा कैसे ये पुकार चहुँ ओर है
संस्कृति अब खो रही भाषा अब खो रहा
ये सब देखकर भी तू, बोल कैसे सो रहा
माँ की आत्मा रक्षा हेतु अब कुलाचे मार रही
जाग ओ भारत के बेटे माँ भारती पुकार रही
कबतक लिपटे रहोगे अन्ध्बुधि के मोह में
भारत को मिटा दे अब, सब हैं इसी टोह में
राष्ट्र हित हेतु तू क्यों कुछ बोलता नहीं
राष्ट्रहित ही धर्म है होता ये राज क्यों खोलता नहीं
धर्म से भारी पंथ हो रहा जुल्म से अन्याय से
सत्य वंचित हो रहा सत्य से और न्याय से
निष्ठा को आत्मा से क्षीण है जमीं में गार रही
जाग ओ भारत के बेटे माँ भारती पुकार रही
कैसा पत्थर है तू, क्यों माँ के आशीष से वंचित हो रहा
घर में तेरे बैठे हैं लुटेरे, क्यों तू इसतरह सो रहा
क्या तुझमे पुरुष नहीं क्या तुझमे जवानी नहीं
डरकर मरने से टकराकर मिटना होता है बेहतर
क्या तुमने सुनी ये अमर कहानी नहीं
उठ अगर तेरे अन्दर अभिमान बाकि है
छोर दे कायरता को गर स्वाभिमान बाकि है
उठ और दृष्टि खोल के देख दुश्मन तुम्हे ललकार रही
जाग ओ भारत के बेटे माँ भारती पुकार रही