17 जुलाई 2015 दिन शुक्रवार, मैं सबेरे 7 बजे ही दरभंगा रेलवे स्टेशन पहुँच चूका था. कारण था मुझे दिल्ली जाना था, पर मेरे पास रिजर्वेशन टिकेट नहीं था.. दलालों के माध्यम से 1000-1500 में टिकेट मिल भी जाता मगर पैसे के आभाव को देखते हुए... जेनरल से मात्र 300 रूपए में दिल्ली जाने का निश्चय कर लिया था... इसलिए अपनी सीट पक्की करने के लिए जल्दी आना जरूरी था. बिहार संपर्क क्रांति अपने समय से 8:35 में चलने वाली थी. मैं ने अपना टिकेट लिया और प्लेटफार्म नंबर एक पर पहुँच गया, ट्रेन यहीं से प्रस्थान करने वाली थी. मैं घर से एक बोतल पानी ले के आया था, मगर गर्मी समय होने के करण एक्बोतल और पानी खरीदने का निर्णय लिया. मैं ने वेंडर से एक बोतल पानी ले लिया और उसे 15 रुपया दे दिया, मैं सोच रहा था की हमेशा की तरह वो हसे 20 रूपए के लिए कीच-कीच करेगा, मगर संयोग इसबार ऐसा कुछ नहीं हुआ. वो शायद इसलिय की इस बार मैं ने उसे खुले पैसे दिए थे. उसके बाद एक पेपर लिया और गाड़ी का इंतजार करने लगा.
लग-भग 7:30 बजे ट्रेन धीरे-धीरे ट्रेन प्लेटफार्म के नजदीक आते दिखा. जेनरल में जाने वाले लोग सतर्क हुए और उठ खड़े हो के अपना सामान संभालने लगे. मेरे पास सामान कुछ खास नहीं था एक छोटे से बैग के आलावा. फिर भी मैं खड़ा हुआ और उनलोगों के साथ हो लिए. ट्रेन अभी रुकी भी नहीं थी की लोग उसके दरवाजे पकड़ के उसके साथ दौरने लगे. मैंने भी एक दरवाजा पकड़ा और दौरने लगा. कुछ दूर दौरने के बाद मुझे लगा की मैं गिर भी सकता हूँ, लेकिन फिर भी दौरता रहा. आपात खिड़की से घुस के किसी ने दरवाजा खोला.. मैं झट से अन्दर घुसा और खिड़की साइड की एक सीट पे जा के जम गया. मुझे राहत महशुस हो रही थी की किसी तरह अब बैठ के दिल्ली पहुँच जायेंगे.
मैं जिस कम्पार्टमेंट में था, उसमे 10 लड़के का एक समूह अपने लिए जगह बनाने में सफल रहे. मिनट भी नहीं बीते थे और कम्पार्टमेंट फुल हो चूका था. चार के सीट में 7-7 लोग जम चुके थे. लोगो के आना जरी था. वे लोग अपने लिए ऊपर सामान रखने वाली जगह पर सीट सुरक्षित कर रहे थे. कुछ ही मिनटों में ऊपर भी 6-6 लोग बैठ चुके थे. लोगो का आना अभी भी जरी था.
वे 10 लड़के जो अपने लिए सीट सुरक्षित कर चुके थे, उसमे एक 10-11 साल का बच्चा भी था. मैं ने उससे उसका नाम पूछा तो उसने बतया मुकेश. उम्र पूछा तो बताया 11 साल, पूछा कहाँ जा रहे हो??? तो उसका जबाब था, दिल्ली फेक्ट्री में कम करने.उसके बाद मुझे उससे कुछ पूछने की हिम्मत नहीं हुयी.
ट्रेन अपने निर्धारित समय से खुल चुकी थी. लगभग 45 मिनट बात हमलोग समस्तीपुर पहुँच चुके थे. लग-भग आधे घंटे बाद गाड़ी वहां से चल पड़ी. मैं खिड़की से बाहर टुकुर-टुकुर देख रहा था, और मुकेश जैसे लाखो बच्चे के बारे में सोच रहा था. इस बिच वे लोग घर से लाए खजुरिया, पूरी, लिट्टी, नमकीन, रोटी और आचार आदि खाने में मशगुल थे. और एक मैं था जो dar से न कुछ खा रहा था न ही पानी पि रहा था, कहीं टॉयलेट लगा तो समस्या हो जाएगी. जब कोई खाने-पिने का सामान बिकने आता तो पहले वे लोग हिशाब लगाते की खरीदने के बाद कम से कम इतना पैसा तो बच जायेगा जिससे वो अपने गंतव्य तक पहुँच सके. स्टेशन दर स्टेशन बीत रहा था. लोगो के भीड़ बढती जा रही थी. उनलोगों का खाना-पीना भी रह-रह के जरी था. एक बार फिर मैंने हिम्मत कर के मुकेश से पूछा, दोस्त तुम घर पे पढ़ते थे?? तो उसका जवाब था नहीं, मैंने फिर पूछा तुम्हारा मन पढने करता होगा न??? उसका जबाब था नहीं, मैं ने पूछा और बच्चों को स्कूल जाते देख के तुम्हे स्कूल जाने का मन करता नहीं करता है??? इसका भी जबाब उसने नहीं में दिया. मैं फिर चुप???
दोपहर लग-भग ३ बजे छुक-छुक गाडी गोरखपुर पहुंची. गोरखपुर पहुँचने से पहले ही उनलोगों का पानी ख़त्म हो चूका था. छपरा और सिवान में ट्रेन रुकते ही 2 बच्चे एक लड़का लगभग 10 साल और एक लड़की लगभग 6 साल, 5 रूपए बोतल पानी भरने के लिए, खिड़की से आवाज लगा रहे थे. उन लोगो ने उन से पानी मंगवाया. बच्ची जब 2 लीटर के बोतल में पानी भर के ला रही थी तो उससे ठीक से संभल भी नहीं रहा रहा. लेकिन वो ऐसा करने के लिए मजबूर थी.
गोरखपुर में भी कुछ लोग धक्का-मुक्की करते ट्रेन में चढ़े, अबतक रास्ता एकदम से बंद हो चूका था. रुक रुक के हो रही बारिश मौसम को सुहाना बना रहा था. मैं खडकी से बाहर दूर तक फैले खेत और बाग़ को देख रहा था. सुहाना मौसम , हरे-भरे खेत , ट्रैक के किनारे-किनारे सागवान और सफेदा के पेड़, धन के रोपनी करते मजदुर को देख रहा था. पर मन मुकेश और पानी वाले बच्चे के बड़े में सोचने को मजबूर हो रहा था.
बाहर का मौसम सुहाना था, मगर ट्रेन रुकते ही लगता था जैसे कम्पार्टमेंट में किसी अज्ञात शक्ति के द्वारा गर्म और उमस भारी हवा छोरा जा रहा हो. मात्र 2 मिनट यात्रियों का कपडा पसीने से भींग जाता था. इसी बिच मैं ने देखस एक लड़के ने मुकेश को खैनी दिया, उसने उसे बरी कुशलता से अपने ओटो के बिच दबा लिया. मुझ से रहा नहीं गया, मैं ने उस लड़के को बुरा भला कहा और मुकेश को भी समझाया की खैनी खाने से बीमारी होता है, पैसे बर्बाद होते है, तुम बीमार हो जायोगे तो तुम्हारे माता-पिता को कितना दुःख होगा आदि आदि.
ट्रेन अपने गंतव्य की ओर बढ़ रही थी, मैं खिड़की से बाहर देख रहा था. अँधेरा होने वाला था,खेतो में बड़े-बड़े मोर दिखाई दे रहे थे. माल-जाल को चरवाहे घर की ओर हांक रहे थे. तभी मुझे भूख महशुस हुआ. मैं अपने बैग से रोटी-सब्जी निकला और खाने लगा. तभी मैं ने देखा मुकेश खैनी बना रहा है, मैं ने उसे टोक दिया तो बोला मैं नहीं खाऊंगा, लडको की ओर इशारा करते हुए बोला उनलोगों के लिए बना रहा हूँ. उसने 11 बजे तक में 3 बार उन लडको को खैनी बना के खिलाया, पर खुद नहीं खाया. मगर चौथी बार मेरी नजरो से बचने कोशिस करते चुपके खैनी अपने ओठो के बिच दबा लिया. इस बार मैं देख के भी कुछ नहीं बोला.
रात को 11:30 में हमलोग लखनऊ में थे. लोग एक दुसरे के ऊपर हाथ, पैर और सर रख के सो रहे थे. लेकिन मुझे नींद नहीं आ रही थी. गाड़ी खुली और पता नहीं मुझे कब नींद आ गया. जब आँख खुली तो उस समय 4:30 हो रहे थे, और हमलोग गाजियाबाद पहुँच चुके थे. लोग एक दुसरे के ऊपर बेतारिके लादे सोये थे. लगभग 1 घंटे बाद हमलोग नई दिल्ली स्टेशन पहुँच चुके थे. मैं ने उनलोगों से बोला दिल्ली आ गया उतरने के लिए तैयार हो जाओ. उन्हें विश्वास नहीं हुआ. दो-तिन बार तो-तिन अलग-अलग लोगो से पूछने के बाद ही उन्हें तसल्ली हुआ की सही में दिल्ली पहुँच चुके है.
सब उतरने लगे, मैं भी उनलोगों के पीछे उतरा और अपने घर की ओर चल दिया. लेकिम मेरे दिमाग में अब भी मुकेश और वो पानी वाला बच्चा घूम रहा था. मैं उनके जैसे लाखो बच्चे के बारे में सोच-सोच के परेशांन हो रहा था. मेरे ख्याल से रोजना मुकेश जैसे बच्चे दूर-दराज के गॉव से रोजी-रोटी के तलाश में हजरों किलोमीटर दूर महानगरो में आ के अपने बचपन बर्बाद करने को मजबूर होते है. मैं निराश था, की इन जैसे बच्चों के लिए कुछ कर पाने के स्थिति में नहीं था.
अमित सिंह