क्या करूँ मैं मित्रता लेकर तुम्हारी.
जब मिला मौक़ा तो तुमने की सवारी,
क्या करूँ मैं मित्रता लेकर तुम्हारी.
आगमन नूतन नगर में जिस दिवस मेरा हुआ था,
मित्र तेरे प्रेम ने किंचित नहीं मन को छुआ था,
अजनबी था उस नगर में, तूने नहीं संबल दिया था,
यूँ लगा था तब यकायक, जैसे मुझ को ठग लिया था,
ना थी वाहन की व्यवस्था और ना रूकने का ठिकाना,
और तेरे पास था कश्मीर जाने का बहाना,
क्या व्यवस्था को जरूरी था तेरा प्रत्यक्ष होना,
प्रेम है मुझसे तुम्हे यदि, प्रिय कुछ प्रमाण दो ना,
घूमते थे स्वर्ग में तुम और था मुझ पे कष्ट भारी
क्या करूँ मैं मित्रता लेकर तुम्हारी.
साझे की हर एक वस्तु निज निधि समझा किये तुम,
छीन कर हर एक सुविधा बस मुझे बहला दिए तुम,
तेरी शक्ति तेरे साधन का नहीं होने दिया अहसास मुझको,
और मेरी हर कला को भोगने का खूब था अभ्यास तुझको,
थी असीमित और अधूरी साधनों को भोगने की तेरी इच्छा,
किन्तु तुम न कर सके इस मित्रता के कच्चे धागे की सुरक्षा,
थे उसूलों और नियमों के वो तेरे पक्के वादे,
पर कभी जब स्वार्थ आया रास्ते में, भरभरा कर गिर गए तेरे इरादे,
सारी नैतिकता और सारे सत्य को तुम यूँ नचाते ज्यूं मदारी,
क्या करूँ मैं मित्रता लेकर तुम्हारी.
शोध करना था मुझे, पर नहीं तूने दिया कभी साथ मेरा,
जबकि मामा तेरा था उस उच्च पद पे, और शिक्षक भाई तेरा,
बात हो हिंदी दिवस की या के पिकनिक या हो कोई और मौक़ा,
हर समय चाहा ये तुमने मैं हूँ आउट और लगाओ तुम ही चौका,
मेरे अधिकारो की ह्त्या कर मनाई धूम से तुमने दिवाली,
और रंगों के दिवस भी देके धोखा चुपके से होली मनाली,
बात करके मीठी-प्यारी भोली-भाली, यूँ रहे तुम मुझको छलते,
यूँ दिखाते थे प्रेम थे पर सच ये था, तुम वास्तव में मुझसे जलते,
धन के स्वामी होके भी तुम प्रेम में, विश्वास में रहे बस भिखारी,
क्या करूँ मैं मित्रता लेकर तुम्हारी.
एक ऐसे महान मित्र को समर्पित जिसके होते हुए मुझे शत्रुओ की कमी कभी महसूस नहीं हुयी