मुझे पर्यटन का बहुत शौक है लेकिन समय और धन की सीमाओं के कारण साल में मुश्किल से एक बार भी कहीं निकल पाऊं तो बहुत समझो. मैं अक्सर कोशिश करता हूँ कि हर पर्यटन स्थल को उसके ऑफ सीजन में देखने जाऊं. उसके दो फायदे हैं एक तो ऑफ सीजन में भीड़ कम होती है और दूसरा ये है कि होटल, गाडी आदि आदि सब कुछ सस्ता होता है. कुल मिला कर किसी पर्यटन स्थल पर किसी चीज का भाव उसकी जरूरत के हिसाब से तय होता है. जितनी ज्यादा डीमांड उतनी ज्यादा कीमत. मनाली में जो कमरा आपको दिसंबर में एक हजार रुपये प्रतिदिन में मिलेगा हो सकता है वो ही कमरा जून में पांच हजार रुपये में मिले. पहले मैं सोचता था कि ये कितनी गलत बात है. देखा जाए तो एक तरह की ब्लैकमेलिंग है. लेकिन अब धीरे धीरे वक्त के साथ मैं सोचता हूँ ठीक है. किसी डॉक्टर ने तो आपसे कहा नहीं है कि आप पर्यटन करने जाओ. ये है तो एक तरह का ऐश्वर्य ही. जब आपके पास खा पी कर, बच्चो की फीस, कपडे, दवाई आदि सब खर्च करके भी कुछ बच जाता है तो आप घूमने जाते हैं. अब आपके शौक से किसी की रोजी रोटी चलती है तो क्या बुरा है. वैसे भी ऑफ सीजन में तो उन लोगो को सीजन में कमाए हुए धन से ही गुजारा करना है. कश्मीर में ज्यादा बर्फ पडी आप तो तुरंत भाग आये, वहां के लोग भाग कर कहाँ जाए? उत्तराखंड में बाढ़ आयी सेना ने लोगो को बाहर निकाला लेकिन वहां के स्थानीय लोगो को तो फिर भी वहीं रहना है. जिस सुहावने मौसम को आप देखने जाते हैं उसे दो मिनट भी नहीं लगते डरावना होने में. खैर छोडिये मैं किसी और विषय में आपसे बात करना चाहता हूँ.
पिछले कुछ दिनों से कोटा में हूँ. यहाँ एक और ही तरह का टूरिज्म चल रहा है वो है education tourism अर्थात शैक्षणिक पर्यटन. यहाँ स्टेशन से निकलते ही ऑटो वाला पूछता है मेडिकल या इंजीनियरिंग? फिर वो कोचिंग के लिए और डमी एडमिशन के लिए; दोनों के लिए आपको इंस्टिट्यूट और स्कूल बताता है और वहां ले चलने का प्रपोजल देता है. साफ़ सी बात है कि उसका कमीशन है. जैसे टूरिस्ट प्लेसेज पर होटल और गाडी की बुकिंग के दलाल होते हैं यहाँ स्कूल और कोचिंग के हैं. सिर्फ इतना ही नहीं एक और तरह की दुकाने भी हैं; ये हैं प्रैक्टिकल लैब्स. जब बच्चा स्कूल जायेगा नहीं और कोचिंग क्लास में प्रैक्टिकल होंगे नहीं तो प्रैक्टिकल की प्रैक्टिस कहाँ होगी. वो इन दुकानों पर होगी, जिसकी फीस अलग से देनी होगी. एक और तरह का धंधा भी यहाँ खूब फल-फूल रहा है वो है स्कूल के प्रोजेक्ट और प्रैक्टिकल की फाइल्स बनाने का. ये एक नियत शुल्क लेकर बच्चे के साइंस या कम्प्यूटर के प्रोजेक्ट और फिजिक्स कैमिस्ट्री वगैरह की फाइल बना कर देते हैं.
कोटा की आधे से ज्यादा आबादी ने अपने घर में हॉस्टल खोल रखे हैं. मुश्किल से आठ फुट बाई आठ फुट का कमरा दस हजार रूपये महीना में. सूरत में थ्री बी एच के का फ्लैट मिलता है दस हजार में. जहां खाना भी साथ में है वहां बारह से चौदह हजार. बिजली का बिल अलग. और बिजली का बिल भी बाजर भाव से नहीं उसका दो गुना तीन गुणा. मेरा बेटा जिस हॉस्टल में है उसमे आठ रूपये प्रति यूनिट वसूली जाती है. अगर माँ बाप में से कोई बच्चे से मिलने आ गया तो उसके प्रतिदिन के हिसाब से रहने के पैसे अलग भले ही वो सारी असुविधाओ को झेलता हुआ अपने बच्चे के कमरे में ही रहे. और अगर अलग कमरे में रहना है तो रेट अलग. खाने का तो जाहिर सी बात है अतिरिक्त ही होगा. कमरा लेने के वक़्त आपको प्रतिदिन का खाने का मीनू बताया जाता है. लेकिन बाद में रोज परांठे और आचार. अगर किसी दिन ब्रेड पकोड़ा या मैगी बनी तो मात्रा सीमित कर दी जाती है जैसे कि आप दो ब्रेड पकोड़े से ज्यादा नहीं खा सकते या एक से ज्यादा बार मैगी प्लेट में नहीं ले सकते. एक सोलह सत्रह साल का बढ़ता हुया बच्चा सुबह आठ बजे दो ब्रेड पकोड़े खाकर दोपहर दो बजे तक कैसे रहेगा? बाहर रेस्तौरेंट हैं ना. कुछ तो ऐसे आउटलेट हैं जिनका कोई पता नहीं है सिर्फ मोबाइल नंबर है. आप रात के तीन बजे भी आर्डर कीजिये होम डिलीवरी के माध्यम से खाना मिलेगा. जब हॉस्टल के खाने से पेट नहीं भरेगा तो बच्चा क्या करेगा. खाने में अधिकांश दिन दाल या सब्जी में से सिर्फ एक ही चीज बनती है. और हाँ मजे की बात ये है कि रविवार को मेस बंद रहेगा के साथ साथ मंगलवार को रात के खाने में दाल या सब्जी नहीं बनेगी; मतलब सर्फ परांठे. स्वच्छता का तो नामोनिशान नहीं है मक्खिया भिनभिनाती रहती हैं.
कोचिंग इंस्टिट्यूट इतने हैं कि फैसला करने में ही दिमाग ख़राब हो जाये. सब अपने अपने पोस्टर्स पर सबसे ज्यादा सिलेक्शन करवाने का दम भरते हैं. कई बार तो एक ही बच्चे का फोटो एक से ज्यादा इंस्टिट्यूटस ने छापा होता है. ज्यादा इन्क्वायरी करो तो पता चलता है कि “वो स्टडी तो उनके इंस्टिट्यूट में करता था लेकिन उसने हमारा डिस्टेंस लर्निंग कोर्स लिया हुया था.”. नए इंस्टिट्यूट अपने पोस्टर्स पर लिखते हैं एक्स फैकल्टी पुराना इंस्टिट्यूट. रोज नए नए इंस्टिट्यूट खुलते जा रहे हैं. लोग बताते हैं कि पहले कोटा में सिर्फ एक इंस्टिट्यूट था, फिर उसके अध्यापको को कोई सेठ ज्यादा पैसे का लालच देकर तोड़कर ले गया और उसने अपना नया इंस्टिट्यूट खोल दिया. इसी तरह कोटा में अध्यापक ज्यादा और ज्यादा पैसो के लिए इंस्टिट्यूट बदलते रहते हैं और नए नए कोचिंग इंस्टिट्यूट खुलते रहते हैं. आप सोच भी नहीं सकते कि कई अध्यापको की तनख्वाह कई करोड़ प्रति वर्ष है. और इनमे से ज्यादातर चालीस से भी कम उम्र के इंजिनियर है जो कि अपने फील्ड में कोई ढंग का जॉब ना मिल पाने के कारण इस फील्ड में आ गए. विद्यार्थीओ की संख्या हजारो में नहीं लाखो में है. किसी भी इंस्टिट्यूट की फीस सत्तर-अस्सी हजार रूपये सालाना से कम नहीं है. अरबो खरबों का कारोबार है. जो बच्चा आपके लिए आपका भविष्य है वो कोटा वालो के लिए सिर्फ एक कस्टमर है. कोचिंग वालो के लिए, हॉस्टल वालो के लिए, स्कूल वालो के लिए, प्रैक्टिकल लैब वालो के लिए, रेस्तौरेंट वालो के लिए, साइबर कैफ़े और मोबाइल डाउनलोड वालो के लिए. लूट लो जितना ज्यादा से ज्यादा लूट सकते हो.
लेकिन कोटा वालो ये याद रखना कि कोई माँ-बाप अपने बच्चे को टूरिज्म के लिए कोटा नहीं भेजता. वो कोटा भेजता है उसके एक बेहतर भविष्य के निर्माण के लिए, मेहनत के लिए, पढाई के लिए. ये भरे पेट का शौक नहीं है, ये भूखे पेट रहकर भी पूरी की जाने वाली जरूरत है. कौन कैसे-कैसे पैसे बचा कर कोचिंग और हॉस्टल की फीस भरता है और तुम्हे बिजली के बिल में भी मुनाफ़ा चाहिए. तुम क्या समझोगे कि किस किसान ने जमीन गिरवी रखी है और किस नौकरीपेशा बाप ने लोन लेकर अपने बच्चे को कोटा भेजा है. तुम्हे क्या है तुम कमाओ, नोट छापो. शिक्षा जैसे पुनीत पावन पूजा जैसे काम में भी मजबूर लोगो की जरूरतों का ऐसा नाजायज फायदा उठाना; कभी तो हिसाब होगा, कहीं तो हिसाब होगा.
एजुकेशन इंडस्ट्री कोई थर्मल प्लांट नहीं है जो कि कोयले की खानों के पास ही लगेगा. ये कोई पेपर मिल भी नहीं है कि नदी के पास होनी चाहिए. ये कोई कपडे की फैक्ट्री नहीं है जो स्थानीय कपास के उत्पादन पर निर्भर हो. एजुकेशन इंडस्ट्री के कोटा में होने के लिए कोटा का कोई भी स्थानीय गुण नहीं है. कल अगर सूरत के किसी हीरा व्यवसायी ने मुंह मांगे दाम देकर तुम्हारे टॉप इंस्टिट्यूट के टॉप फैकल्टी तोड़ लिए तो क्या करोगे. दो मिनट लगेंगे सूरत को कोटा बनने में. फिर खुद बुलडोजर लेकर ये इमारते तोड़ना क्योंकि आठ बाई आठ का कमरा और किसी काम तो आएगा नहीं.