भयावह सन्नाटे के बीच
बहती बेसुध हवाएँ
बीच –बीच में डराते उल्लुओं और सियारों के स्वर
इन्हीं के बीच अंधेरों से बेखबर
घनी घास को चीरती पगडंडियाँ,

उन पर
बढ़ते चरण
लेकर कुछ ख्वाब
तुम्हारे संग के, साथ के
बदल जाते थे जहाँ मिनट बरसों में
युगों में
और,
दूर किसी झाड़ी की परछाईं में
तुम ही तुम तो दिखाई पड़ती थीं
पल-प्रति पल
करीब आते ही
जब दुबक जाती थीं तुम
उस परछाईं की छांव में

बे मौसम बरस पड़ती थीं आँखेँ
भादों के मेघ-सी
फिर मिली थीं तुम अचानक
जब एक दिन
धौल देकर पीठ पर
चंचल हवा-सी
वो तुम्हारा आगमन
ऐसे लगा था
पहाड़ों से गिरी
कोई बेगवती सरिता
बहाकर
ला रही हो
प्रेम से अनगिन हार औ उपहार मोती के
औ मिली हो
किसी सागर से
शायद इसलिए ही तो
तुम्हारी धार में रफ़्तार आयी थी |

और उसके बाद
बदले युग पलों में
फूल मुसकाए थे
अचानक रातरानी के
उतर आया था
धारा पर चाँद जैसे
ले थाल चाँदी की
सो गया था संगीत तितली का
चुपचाप सीने पर हमारे
उस समय
जब तुम हुईं थी
बेताब सुनने को
धड़कनें दोनों दिलों की
और देकर कान
लेटी रह गयी थीं
कुछ पलों तक
चुपचाप सीने से
और बोली थी अचानक
चाँदनी से
सौत-सी क्यों छल रही
पावन प्रणय को

चाँदनी ने तब समेटा
जाल अपना
और उसको रख चली उषा सखी के द्वार
इस तरह जब ख्वाब टूटा था हमारा
आज तक
लौटे न वे छन
जिन्हें लेकर चले थे पग हमारे
घनी घास को चीरती पगडंडियों पर |

- चन्द्रशेखर प्रसाद