नासमझ की गुस्ताख़ी तो देखो....
जब उतारना होता है जज़्बातो को काग़ज़ पर
तो इधर-उधरअल्फ़ाज़ ढूंढता हू मैं,
जब उतारना होता है जज़्बातो को काग़ज़ पर
तो इधर-उधरअल्फ़ाज़ ढूंढता हू मैं..
और जो लिख लू दो-चार नज़्म --२
तो खुद मे "ग़ालिब" और "गुलज़ार" ढूंढता हू मैं....!
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- SAURABH SONI