बरे बेपाक होके निकले थे अपने घर से अनजान थे बेईमानी से,
चलते - चलते मिले कई लोग जिनमे दिखने में लगे थे कुछ अपने से,
फिर रस्ते में कई मोर आये मोर पे कई लोगों के घर आये,
पर हम साथ निभाते बढ़ रहे थे बन उनके परछाई से,
एक सुनसान से चौराहे पे आके कहा उसने उनका सफ़र अब ख़त्म हुआ
साथ एक - दूजे के चलना अब ख़त्म हुआ
वो निकल परे थामे हाथ उनका जो कभी उनके अजनबी हुआ करते थे,
बेईमानी की इस दास्ताँ ने हमे मोल सिखलाई भरोसा ना दिखा बेईमानो से,
आज गुहार करते है हम मिला डालो मेरे भी बुत में कुछ मुट्ठी मिटटी जो हो सनी बेईमानी से,
बरे बेपाक होके निकले थे अपने घर से अनजान थे बेईमानी से ..
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- JITENDRA SINGH